Thursday, October 1, 2009

वेदना के नश्तर

लता मंगेशकर का नाम स्वयं में एवरेस्ट शिखर है। गायकी का पर्यायवाची बन गई हैं। करोडों लोग जिसकी प्रशंसा करते नहीं थकते और ईष्र्या करने वाले भी इतने ही होंगे। उनके साक्षात्कार की एक पंक्ति ने आत्मा को झकझोर दिया। 'अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो'। जीवन के 80 वर्ष पार करके, सफलता की हिमालय जैसी ऊंचाइयो को नाप लेने के बाद, आज उनके मुंह से निकली यह पंक्तियां नश्तर से भी गहरी चुभने वाली हैं। आम नारी के ह्वदय की वेदना, उसकी पीडा को व्यक्त करने वाली हैं। इनमें छिपे 80 वर्ष के न जाने कितने अनुभव देश की सभ्यता और संस्कृति को चांटे मार रहे हैं। यह वक्तव्य इस बात का भी प्रमाण है कि साठ साल की आजादी के बाद हमने क्या हासिल किया। कन्या शिक्षा, नारी शक्ति योजनाएं, आरक्षण और न जाने क्या-क्या बहाने ढूंढे, नारी के नाम पर शोषण के। हमारे देश के कर्णधारों को इस बात से कुछ शर्म आएगी, पता नहीं। और जब इनकी यह कहानी है तो साधारण महिला तो नर्क में ही जी रही होगी। दरिन्दों के बीच। मुझे तो यह भी लग रहा है कि राजस्थान के सिर पर जो कन्या भ्रूण हत्या का टीका लगा हुआ है, लताजी का कथन इसी का साक्षी है। एक व्यक्तिगत अभिव्यक्ति है, दूसरी सामाजिक।

कल ही समाचार पढा था कि आठ माह में राज्य में महिलाओं के प्रति अपराध 18.5 प्रतिशत बढे हैं। बलात्कार भी बढे हैं। लगता है कि कोई आदमी किसी औरत को हंसते हुए देखना ही नहीं चाहता। उसे यह भी समझ लेना चाहिए कि औरत के साथ धरती भी रोती है। संस्कृति और सभ्यता भी रोती है। वह चाहेगी तब तक ही आदमी हंस पाएगा।

गहराई से देखें तो इसका कारण भी स्वयं स्त्री ही है। विश्व भर में। वह लडके की तरह जीना चाहती है। पत्नी और मां बनने की सीख अब नहीं लेती। उसका प्रभुत्व घर में जिन कारणों से रहा करता था, लुप्त हो गया। कहते हैं कि शरीर की पकड नौ साल, दिमाग की पकड दो साल। उसके बाद सुख कहां

लताजी की वेदना में सामाजिक चिन्तन पर भी बडा प्रहार है। जिस प्रकार के परिवेश से लताजी गुजरीं, जिस प्रकार विवाह के संघर्ष में असफल हुई, ईष्र्याजन्य आरोपों से सदा घिरती रहीं, तब लगता है कि सुख को न धन से, न ही पद से खरीदा जा सकता है। वे छोटे परिवार में भी सुख से रह सकेंगी, यदि अगले जन्म में लडका बन पाई। शक्ति पूजा करने वाले देश को इससे बडा कौन सा अभिशाप लग सकता है सौ करोड की आबादी के देश में आधी दुनिया देश को जीने लायक ही नहीं मान रही। अपमान, संघर्ष और अपमान! जबकि देश की राष्ट्रपति स्वयं एक महिला है।
गुलाबजी कोठारी (राजस्थान पत्रिका के सम्पादकीय से लिया गया।)

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