Sunday, October 11, 2009

ओबामा को नोबेल यानी शांति के लिए एडवांस बुकिंग

पुरस्कार और सम्मान दो स्थितियों में दिए जाते हैं। सामान्य लोग दूसरों का कोई अच्छा
काम देखते हैं, तो उसे सम्मानित करते हैं। जो समझदार लोग हैं, वे अच्छा काम करने के पहले भी सम्मानित कर देते हैं। इस तरह सम्मानित होने वाला व्यक्ति अच्छा काम करने के लिए बंध जाता है। वह सम्मानित किया जा चुका है, भला गलत कैसे कर सकता है।
ओबामा के नोबेल शांति पुरस्कार के मामले में भी यही हुआ है। बहुत सारे लोग समझ नहीं पा रहे हैं, भाई, इन्हें तो कुर्सी संभाले अभी नौ महीने ही हुए। विश्व शांति के लिए ऐसा कुछ किया भी नहीं है। फिर अचानक यह शांति पुरस्कार कैसे मिल गया? नोबेल कमिटी ने असल में उन्हें पहले ही सम्मानित कर शांति मिशन के लिए बांध दिया है। परशुराम ऋषि तो थे, पर बड़े क्रोधी थे। वह शिव के परम भक्त थे। इसलिए सीता स्वयंवर में जैसे ही राम ने शिव का धनुष तोड़ा, परशुराम गर्जन-तर्जन करते वहां आ पहुंचे। वह धनुष तोड़ने वाले को दंडित करना चाहते थे, मेरे आराध्य शिव का धनुष किसने तोड़ा? उनकी पहले ही सेवा-भगत हो गई होती तो शायद इसकी नौबत ही नहीं आती।

विश्व की शांति कैसे भंग हो सकती है? फिलहाल एक अमेरिका ही ऐसा देश है जो सिर्फ अपनी इच्छा से ऐसा कर सकता है। अगर खुद नहीं करे तो करवा सकता है। और दूसरे यदि शांति भंग करने की कोशिश कर रहे हों तो उन्हें घुड़क कर शांति से बैठने को कह सकता है। विश्व शांति का सूत्र अमेरिका के हाथों में है। और उसका कर्ता-धर्ता है अमेरिका का राष्ट्रपति। इसलिए उसे ही शांति का रक्षक बना लिया जाए -पहले से ही यानी एडवांस बुकिंग।

जॉर्ज बुश जब राष्ट्रपति थे तो सामूहिक नरसंहार के हथियार (वीपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन) खोजते-खोजते आखिर इराक पर चढ़ बैठे। असल बात यह थी कि उन्हें सद्दाम का चेहरा पसंद नहीं था। उनके पहले रीगन ने अपने कार्यकाल में लंबे समय तक निकारागुआ में आतंकवाद को शह दिया था। अमेरिका का राष्ट्रपति ऐसा बहुत कुछ कर सकता है, जिससे शांति नष्ट हो जाए। इसलिए दुनिया के बहुत सारे विकसित और विकासशील राष्ट्र शांति की पहल और शांति की हिफाजत के लिए उसका मुंह देखते हैं।

नोबेल कमिटी ने भी इस बार यही किया है। उसने शांति की स्थापना के बदले इस बार शांति की संभावना के लिए यह पुरस्कार दिया है। ओबामा भाई, आप में क्षमता है, आप ही यह कर सकते हो। यह लो पदक और जरा फिनिश लाइन छू कर दिखा दो। यह अमेरिकी राष्ट्रपति को एक नैतिक दायित्व में बांधने जैसा है।

नोबेल कमिटी ने हर बार अच्छा काम करने के बाद ही अपना मेडल नहीं सौंपा है, काम के पहले भी सौंपा है और काम के बीच में भी। अमेरिका राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के नेतृत्व में पहला विश्व युद्ध लड़ा था। यानी वे गांधी या बुद्ध की तरह अहिंसा के पुजारी नहीं थे। लेकिन 1919 में जैसे ही लड़ाई बंद हुई और उनके मुंह से 'लीग ऑफ नेशंस' की बात निकली, नोबेल कमिटी ने उनके गले में शांति का मेडल डाल दिया, ठीक है भाई, काफी लड़ चुके, अब शांति की स्थापना करो।

आप जानते हैं, फलस्तीन और इस्त्राइल का झगड़ा कभी खत्म नहीं होता, वह रात और दिन जैसी दूसरी कुदरती चीजों की तरह लगातार चलता ही रहता है। 1994 में अमेरिका फलस्तीनी नेता यासेर अराफात और इस्त्राइली प्रधानमंत्री यित्शाक राबिन को किसी तरह बहला -फुसला कर बातचीत की मेज तक ले आया। उन दोनों ने दो बार बैठ कर बात-वात की हाथ वगैरह मिलाया और नोबेल कमिटी तश्तरी में शांति पदक ले कर उनके सामने हाजिर हो गई। दोनों महानुभावों का बहुत-बहुत शुक्रिया, कम से कम आपने यह स्वीकार तो किया कि अंतिम चीज जो हासिल करनी है, वह युद्ध नहीं अमन ही है।

जब शांति का नोबेल सम्मान दिया जाता है, तो आप सिर्फ पात्र को मत देखिए, पदक देने के पीछे निहित भावना को भी देखिए। और एक शाश्वत तत्व वह भी है, जिसे हमारे गोस्वामी तुलसी दास ने रामचरित मानस रचने के पहले पहचान लिया था। उन्होंने अपने महाकाव्य में सबसे पहले उनकी प्रार्थना की, जो नाराज हो कर अनिष्ट कर सकते थे।
नितिन शर्मा (news with us)

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