Tuesday, September 22, 2009

चीन की गुसताखिया

नेपोलियन ने चीन के बारे में कभी यह भविष्यवाणी की थी- 'इस दैत्य का सोते रहना ही विश्व के लिए कल्याणकारी है क्योंकि जिस दिन यह उठेगा दूसरों के लिए भयंकर संकट पैदा करेगा।' आज नेपोलियन की बात सच साबित होती नजर आ रही है। ड्रैगन रूपी चीन न केवल दुनिया के कई देशों को अपनी ताकत से डरा-धमका रहा है, बल्कि दुनिया पर अपनी चौधराहट थोपने की कोशिश भी कर रहा है। विश्व के अधिकांश देशों की तरह भारत के सामने भी यही समस्या है कि चीन उसका मित्र है या दुश्मन इस उलझी गुत्थी का असली कारण चीन की मानसिकता और उसका अहंकारी विश्व दर्शन है। सदियों से चीन के लोग खुद को दूसरों से श्रेष्ठ-नस्ल और सभ्यता वाले मानते रहे हैं। चीन को वे विश्व का केंद्र और अपने सम्राट को ईश्वर का पुत्र मानते रहे हैं। सभी विदेशी उनकी नजर में असभ्य और बर्बर ही समझे जाते हैं। चेंगहो जैसे नौसैनिक अपने जहाजी बेडों को दक्षिण-पूर्व एशिया में ले जाकर पडोसी राज्यों को दंडित अनुशासित करने की परंपरा को चीनी इतिहास में प्रतिष्ठित कर चुके हैं। चीनी साम्राज्य का एक प्रमुख पक्ष आक्रामक विस्तारवाद रहा है। इसमें कभी कोई फर्क नहीं पडा चाहे चीन पर कोई भी शासन कर रहा हो-साम्राज्यवादी, राष्ट्रवादी, साम्यवादी-माओवादी या उनके उत्तराधिकारी। चीन सदा से शौवनिज्म, अतिवादी, अंधराष्ट्र प्रेम और जिनोपफोबिया, विदेशियों के प्रति आशंकाओं से ग्रस्त मानसिकताद्ध से पीडित रहा है। इसके प्रमाण उसके इतिहास में कई जगह मिलते हैं। उन्नीसवीं सदी में बाक्सर बगावत और बीसवीं सदी के मध्य में संास्कृतिक क्रांति की उथल-पुथल इसका प्रमाण है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शीत युद्ध के दौर में चीन का अंतरराष्ट्रीय आचरण भी इस विश्लेषण की पुष्टि करता है। वास्तव में भारत-चीन सीमा विवाद और सैनिक मुठभेड को एक अपवाद के रूप में देखना घातक भूल होगी। यूरोपीय उपनिवेशवाद के युग से लेकर इक्कीसवीं सदी के आरंभ तक चीन 'बाहरी दुनिया' को दोस्त कम दुश्मन ज्यादा समझता रहा है। इस मामले में उससे बदलाव की उम्मीद करना बेकार है। माओ ने एक बार अमरीका को यह चेतावनी दी थी कि वह चाहे तो चीन के खिलाफ परमाणविक हथियारों का इस्तेमाल कर जोर आजमा सकता है। माओ को भरोसा था कि मानवजाति के लिए वंशनाशक युद्ध के बाद भी धरती पर पूंजीवादी अमरीकियों की तुलना में साम्यवादी चीनी ज्यादा बचे रहेंगे! इसी तरह की नादान सोच चीनी विदेश नीति को भडकाने-उकसाने वाली हरकतें करने के लिए प्रेरित करती रही है। यह हाल तो तब था जब चीन आज की तुलना में कहीं कमजोर था। आज वह न केवल परमाणु शक्ति संपन्न देश है बल्कि संयुक्त राष्ट्र में सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य भी है। भूमंडलीकरण वाली व्यवस्था में चीन का विशाल बाजार और किफायती और कार्यकुशल श्रमिकों कारीगरों की बडी फौज दुनिया भर के उद्यमियों और उत्पादकों को ललचाने लगी है। इस माहौल में यह समझना और समझाना फैशनेबल बना है कि चीन किसी का भी दुश्मन नहीं सभी का दोस्त है। अर्थात अब तक चीन की असलियत समझने में हम सभी भूल करते रहे हैं। लालच ने अमरीका समेत सभी को अंधा बना दिया है। चीन में मानवाधिकारों का उल्लंघन हो या जनतंत्र का हनन या फिर पर्यावरण का अदूरदर्शी विनाश चीन की आलोचना करने का दुस्साहस कोई नहीं करता। यह बात थियेन आनमिन चौक की दशकों पुरानी घटना से लेकर अभी हाल ओलंपिक खेलों के आयोजन के दौरान असहमति का स्वर मुखर करने वाले तत्वों के निर्मम अत्याचारी दमन तक रत्ती भर नहीं बदली है। चीन का वर्णन एक दोस्ताना दैत्य के रूप में किया जाना आम होता जा रहा है। चीन की काया निर्विवाद रूप से दैत्याकार है और उसका आचरण दोस्तों जैसा नहीं दुश्मनों जैसा ही प्रतीत होता है। एक पुरानी कहानी के अनुसार दैत्य चाहे कितना ही विशालकाय क्यों न हो उससे आतंकित होने की या उसके डर से दुबक कर बैठने की घुटने टेक देने की कोई मजबूरी नहीं। अक्सर डरावने दानव का शरीर कितना ही फौलादी क्यों ना नजर आता हो उसके पैर कच्ची मिट्टी के होते है और इस कमजोरी का लाभ उससे अभिशप्त शिकार अपनी रक्षा के लिए उठा सकते हैं। चीन की असलियत भी कुछ ऎसी ही है।बुरे दिन आने को हैंअब तक चीन अपनी बेशुमार आबादी का लाभ उठाता रहा है। निकट भविष्य में यह आबादी उसके लिए ताकत नहीं बल्कि बोझ बन सकती है। जनसंख्या का अधिकांश भाग बुढा रहा है और आने वालों वषोंü में उत्पादक नहीं रहेगा बल्कि दूसरों पर निर्भर हो जाएगा। माओ के युग में एक परिवार एक संतान वाली जिस नीति को प्रतिपादित किया गया था उसके प्रभाव से बिगडैल, इकलौती संतानों की एक पूरी पीढी सामने खडी है जो बल प्रयोग द्वारा ही अनुशासित रखी जा सकती है। इसके अलावा आर्थिक सुधारों का जो नुस्खा चीन ने अपनाया है उसने विकास के संदर्भ में भयंकर क्षेत्रीय असंतुलन को जन्म दिया है। चीनी नागरिकों के लिए देश के एक हिस्से से दूसरे में इच्छानुसार जाकर बसना संभव नहीं। इसने व्यापक रूप से असंतोष और आक्रोश को जन्म दिया है। तीन महान घाटियोे वाले बांध का निर्माण हो या प्राकृतिक आपदा का मुकाबला करने में कमजोरी के कारण हाल के वषोंü में चीन के लिए पर्यावरण का संकट भी निरंतर बढता रहा है। तिब्बत हो या पूर्वी तुर्किस्तान अल्पसंख्यकों की बगावत भी चीन के शासकों की बेचैनी बढा रही है। सबसे बडा सरदर्द यह है कि वर्तमान पीढी के अवकाश ग्रहण करने के बाद समर्थ-सक्षम उत्तराधिकारी नजर नहीं आते। सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण सहज नहीं होगा। चीन के भविष्य में व्यापक स्तर पर अनिश्चय की संभावना प्रबल है और घातक अस्थिरता को जन्म दे सकती है। यही कारण है कि चीन के नेता हरपल अपने देश वासियों का ध्यान बंटाने के लिए बाहरी शत्रु की तलाश में लगे रहते है। यही है इस दैत्याकार राज्य की दुश्मनी और दुष्टता का रहस्य।चीन: आखिर दोस्त किसकाचीनी इतिहास के पन्ने पलटते ही यह बात साफ हो जाती है कि चीन के रिश्ते उन सभी देशों के साथ दुश्मनी वाले ही रहे हैं, जिनके साथ उसकी सरहद जुडी है।रूस दुश्मनी पुरानी हैरूस के साथ साइबेरिया वाले बर्फीले विस्तार में चीन की प्रतिद्वंदिता पुरानी है। 1960 वाले दशक के अंत में उसूरी नदी के तट पर इन दोनों देशों के फौजी दस्तों के बीच रक्तरंजित मुठभेड भी हो चुकी है। बरसों तक यह भ्रम विश्वभर में व्याप्त था कि साम्यवादी खेमा एकजुट है। सोवियत-चीनी संघर्ष ने इस मिथक को तोड दिया। माओ हमेशा से यह मानते रहे कि स्तालिन उनके साथ छल कर रहे हैं और उन्हें बहला कर परमाणु हथियारों से वंचित रखना चाहते हैं। इस घडी भले ही रूस और चीन के बीच तनाव शैथिल्य देखने को मिल रहा है यह सोचना नादानी है कि भविष्य में भी यही स्थिति बरकरार रहेगी। साइबेरिया में साखालिन प्रदेश में तेल और गैस के प्रचुर भंडार हैं और बहुमूल्य जवाहरातों की खानें भी। चीन के लिए इस दृष्टि से भी आकर्षक है। सामरिक दृष्टि से जापान पर अंकुश लगाने के लिए भी यह महत्वपूर्ण समझा जा सकता है। नस्लवादी अंतर इस वैमनस्य को और जटिल बनाता है। जापान प्रभुत्व ध्वस्त करने की फिराकजापान और चीन पारंपरिक रूप से एक-दूसरे के बैरी रहे हैं। जब जापान शक्तिशाली था तब उसने बडी बेरहमी से चीनियों का दमन किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापानी कब्जावर फौजों ने चीन में ही नहीं पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया में चीनी मूल के व्यक्तियों को उत्पीडित किया। इन ऎतिहासिक स्मृतियों को भुलाना आसान नहीं। जब तक एटमी विध्वंस के बाद जापान कमजोर था वह एशिया में चीन के वर्चस्व को चुनौती नहीं दे सकता था। आज स्थिति बदल चुकी है। जापान को भी यह महसूस होता है कि एशिया मेे उसके आर्थिक प्रभुत्व को ध्वस्त करने में चीन को अपना हित नजर आता है। उससे यह बात भी नहीं छुपी है कि उत्तरी कोरिया को दुष्ट निरंकुश, आतंकवादी राज्य के रूप में चीन इसीलिए खासतौर पर प्रोत्साहित कर रहा है ताकि जापान पर लगाम कसी जा सके। ऎसे में जापान भला चीन को अपना दोस्त कैसे समझ सकता हैवियतनाम घाव पर घावशीत युद्ध के वर्षो में उत्तरी वियतनाम को अपने सामरिक हितों के दबाव में चीन सहायता देता रहा पर जैसे ही युद्ध विराम के बाद इस देश का एकीकरण संपन्न हुआ चीन ने उसे भी अपने सींग और नाखूनों से घायल करने में देर नहीं लगाई। वियतनाम के साथ भी दक्षिण चीनी सागर वाले इलाके में तेल संपदा को लेकर टकराव है। इंडोनेशिया छलावा थी दोस्ती1960 वाले दशक के मध्य में इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकार्णो ने चीन को अपना दोस्त समझने की भूल की थी। माओ ने चीनी मूल के इंडोनेशिया वासी साम्यवादियों की मदद से उनका तख्ता पलटने की साजिश रची जिसका दुखद परिणाम व्यापक साम्प्रदायिक दंगों के रूप में हुआ। इसके पहले मलया में ही चीनी वंशज साम्यवादियों ने आपातकाल को जन्म दिया था। कुछ समय पहले तक दक्षिणी फिलिपीन्स में माओवादी जन्ममुक्ति सेना उस देश की अखंडता के लिए सबसे बडा जोखिम थी। ह्यूमन फै्रंडली हथियार!युद्ध मे खून-खराबे से मुक्ति पाने के लिए अमरीका और इजरायल की फौजें ऎसे हथियारों का इस्तेमाल कर रही हैं, जिससे बिना जनहानि के दुश्मनों को काबू में किया जा सके।इजरायल और अमरीका की फौजों ने ऎसे हथियारों का इस्तेमाल भी शुरू कर दिया है, जिनके इस्तेमाल से खून-खराबा किए बगैर दुश्मनों को हथियार डालने पर मजबूर किया जा सकता है। ये हथियार आमतौर पर दंगा नियंत्रण और आत्मरक्षा के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। भारत भी इस मामले में पीछे नहीं है। भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन ने दुनिया की सबसे तीखी मिर्च 'भूत जोलकिया' से हैड ग्रेनेड बनाकर कम खतरनाक हथियारों के विकास की दिशा में एक मिसाल पेश की है। वर्ष 2001 में अमरीकी नौसेना ने कम घातक हथियार के तौर पर एक्टिव डिनायल सिस्टम पेश किया था। इस वेपन सिस्टम में माइक्रोवेव बीम के हमले से दुश्मन की त्वचा पर बिना ज्यादा नुकसान पहुंचाए तीव्र जलन पैदा की जा सकती है। हालंाकि इस वेपन सिस्टम को गैर जानलेवा हथियार करार दिया गया है, किन्तु शीघ्र बचाव न किए जाने पर इसकी माइक्रोवेव बीम कुछ ही सैकंड में शरीर को गंभीर रूप से जला सकती है। स्टिकी फोमअमरीकी नौसेना ने 1995 में सोमालिया में संयुक्त राष्ट्र के पीस कीपिंग ऑपरेशन के दौरान प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए इसका इस्तेमाल किया था। स्टिकी फोम एक प्रकार का चिपकने वाला पदार्थ है, जिसे दुश्मनों पर डालकर उन्हे खतरनाक गतिविधियों को अंजाम देने से रोका जा सकता है। यह स्टिकी फोम विषैले तत्वों से रहित होता है, लेकिन इसे त्वचा से छुडना बेहद तकलीफदेह होता है। इलेक्ट्रोशॉक वेपनइस हथियार के इस्तेमाल से दुश्मन को स्तब्ध किया जा सकता है। गन फायर के द्वारा एक पतले फ्लेक्सिबल वायर से दुश्मन को इलेक्ट्रोशॉक देकर स्तब्ध किया जाता है। टेजर नामक इलेक्ट्रोशॉक गन काफी चर्चित है। स्कंकइजरायली रक्षा फौजों ने इसके इस्तेमाल की शुरूआत की है। यह हथियार दुश्मनों के बीच असहनीय दुर्गन्ध फैलाकर उन्हे अपने छिपने के ठिकानों से बाहर निकलने पर मजबूर कर देता है। इजरायली रक्षा फौजें अक्सर भीड को तितर-बितर करने के लिए इसका इस्तेमाल करती है। इसकी खास बात यह है कि इसे तैयार करने के लिए नेचुरल ऑर्गेनिक वस्तुओं जैसे यीस्ट और बेकिंग पाउडर इत्यादि का इस्तेमाल किया जाता है। इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेपनविद्युत तारों में खतरनाक करंट प्रवाहित करने वाली उच्च तीव्रता वाली रेडियो तरंगों के जरिए दुश्मन के इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम को बेकार किया जा सकता है। खाडी युद्ध के दौरान दुश्मन के इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम को बेकार करने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया था।
नितिन शर्मा(news with us)

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