Wednesday, November 18, 2009

नए में खो न जाए पुराना

गुलाबी नगरी, दूसरी काशी, नियोजित नगरों में प्रथम आदि अनेक नामों से पहचाने जाने वाले जयपुर का नाम सुनते ही इस नगर की गत तीन सदियां मानस- पटल पर घूम जाती हैं, जिनमें इसने कला, साहित्य, संस्कृति, समाजसेवा, नगर नियोजन, धर्म, ज्योतिष आदि न जाने किन-किन क्षेत्रों के इतिहास में अपने अमिट चिह्न छोडे हैं। देश के सबसे विशाल राज्य की राजधानी होने के कारण यह गगनचुंबी अट्टालिकाओं के निर्माण में व्यस्त है, अत: इसकी अपनी अनेक पहचान लुप्त होने के कगार पर है। यदि सवाई जयसिंह, जिन्होंने 18 नवम्बर 1727 को इसकी नींव रखकर 1734 में विशाल अश्वमेध किया था, कभी भूले-भटके आज यहां आ जाएं, तो वे अपनी ही नगरी को नहीं पहचान पाएंगे। बीसवीं सदी के प्रथम चरण में जब यहां बिजली की रोशनी नहीं होती थी (वर्ष 1926 में शुरू हुई) यहां आए एक यात्री ने इस नगरी की जिन विशिष्ट पहचानों का जिक्र किया है, उनमें इसे ज्योतिष की नगरी कहा है, जैन नगरी कहा है, पंडितों की नगरी, गोठों (दावतों) की नगरी, मंदिरों की नगरी, परिक्रमाएं करने वाली नगरी भी और संगीत व चित्रकला के घरानों की नगरी भी। कलाएं : देश में ऎसे कम ही नगर हैं, जिनके नाम संगीत के घराने के रूप में मशहूर हो गए हैं। जयपुर घराना संगीत के इतिहास में अंकित है। मल्लिकार्जुन मंसूर से लेकर किशोरी अमोनकर तक जयपुर घराना, बहराम खां डागर से लेकर भट्ट परिवार तक ध्रुवपद की परम्परा चली आ रही है। लोकनाट्य की एक शैली जो 'तमाशा' के नाम से सुविदित है, आज भी ब्रह्मपुरी के भट्ट परिवारों ने जीवित रखी है, जिसकी विशेषता है, शास्त्रीय रागों में निबद्ध लोकभाषा की गाथाओं, फब्तियाें आदि द्वारा बिना रंगमंचीय तामझाम के नुक्कड नाटक शैली में प्रस्तुति देना, यह भी जयपुर की परम्परा है। संगीत के इतिहास में 'गुणिजन खाना' भी अपनी पहचान रखता था, जिसमें गायक, वादक आदि नियुक्त रहते थे। उनकी नियुक्ति राजा के शयन कक्ष के निकट एक चौबारे में चौबीसों घंटे समयानुरूप रागों की प्रस्तुति देते रहने की होती थी। उस समय रेडियो सेट तो होते नहीं थे, न तो ग्रामोफोन थे, गुणिजन खाना ही काम आता था। यहां के संगीतकारों ने संगीत के लक्षण ग्रंथ भी लिखे और शिक्षा के ग्रंथ भी। चित्रकला की विभिन्न शैलियों में जयपुर की शैली भी सुविदित है, 'कलम' को पहचानने वाले आज भी मिल जाते हैं। 'गालीबाजी' की भी परम्परा थी, जिसमें रात-रात भर कवि और गायक समकालीन स्थितियों पर काव्यात्मक फब्तियां कसते हुए जन-जन का मनोरंजन करते थे। जीमण : जयपुर के जीमण मशहूर रहे हैं। बहुत बडी संख्या में जीमण करवाना हो, तो सडकों पर ही पत्तल लगाकर, चारों ओर कनात से ढककर जीमण करवाया जाता था, तब सडकें बहुत साफ-सुथरी हुआ करती थीं। सवाई माधो सिंह द्वितीय के निधन के बाद उनके नुकते में सारा शहर तो जीमा ही था, जयपुर से गुजरने वाली रेलगाडियों के हर डिब्बे में यात्रियों को भोजन दिया गया था। सारी जनता के भोजन को हेडा कहा जाता था, इसका वर्णन मदनमोहन सिद्ध ने 'जयपुर की ज्योणार' पुस्तिका में किया है। जनसंख्या बढने पर भोजनार्थियों की पहचान टिकट बांटकर की जाती थी, कनातों से उन्हें रोका जाता था। इसके बावजूद कनात फाडकर, अनधिकृत रूप से जो लोग भोजन के लिए पहुंचते थे, उन्हें 'लढाक' कहा जाता था। ऎसे-ऎसे 'लढाक' हुआ करते थे कि खूब पहरे के बावजूद छककर ही लौटते थे। नगर सीमा में बने उपवनों में 'गोठ' की परम्परा थी। 'वन सोमवार' की भी परम्परा थी, सावन के प्रत्येक सोमवार को घर से खाना ले जाकर नगर के निकटस्थ उपवनों में मिल-ब्ौठकर शिव पार्वती की पूजा के बाद खाना महिलाओं की विशिष्ट प्रथा थी। ऎसी सभी परम्पराओं का वर्णन मेरे पिता कविशिरोमणि मथुरानाथ शास्त्री ने अपने सुप्रसिद्ध संस्कृत काव्य 'जयपुर वैभव' में किया है। अश्वमेध यज्ञ : सवाई जयसिंह ने जयपुर बसाने के बाद 1734 में अश्वमेध यज्ञ किया था, जिसकी धूम सारे भारत में मची थी। इसे इतिहास का अंतिम अश्वमेध यज्ञ कहा गया। यज्ञ एक वष्ाü तक चला था, आहुति के लिए घी की बावडियां बनाई गई थीं। दक्षिण भारत से वरदराज विष्णु की मूर्ति लाई गई थी, जो आज भी पहाडी पर स्थित है। आमेर रोड के पास एक स्तम्भ बनाया गया था, जो आज भी है। भारत भर से बुलाए गए वैदिकों व विद्वानों को ब्रह्मपुरी में बसाया गया था। जंतर-मंतर : जयपुर का जंतर-मंतर अर्थात ज्योतिषयंत्रशाला इतिहास प्रसिद्ध है। यह यंत्रशाला सर्वाधिक वैज्ञानिक है, जो आज विश्व धरोहरों में शामिल होकर जयपुर का गौरव बढा रही है। कल्कि मंदिर : हर जाने-पहचाने देवता के मंदिर जयपुर में हैं। भविष्य में अवतार लेने वाले देवता का भी मंदिर यहां है। कलियुग की समाप्ति पर विष्णु का दसवां अवतार अर्थात कल्कि अवतार होगा, यह अवधारणा दृढ है। जिज्ञासा व श्रद्धावश सवाई जयसिंह ने कल्कि जी का मंदिर बनवाया था, जो आज भी विद्यमान है। सर्वधर्मसमभाव : जयपुर में हर धर्म के लोग बसाए गए थे। सभी धर्मो के मंदिर, मठ, मस्जिद, गुरूद्वारे, चर्च बनवाए गए थे। प्रारम्भ से ही सब धर्मो के जो उत्सव मनाए जाते थे, उनमें सभी नागरिक भाग लेते थे। जब ताजिए निकलते थे, तो उनमें से एक सवाई रामसिंह के नाम भी होता था। हिन्दू माताएं अपने बच्चों को ताजिए के नीचे से होकर निकालती थीं। घाट दरवाजे के बाहर बना चर्च तथा स्टेशन रोड का प्रोटेस्टेंट चर्च सदियों से प्रसिद्ध है। गुरूद्वारे भी सारी जनता के श्रद्धा केन्द्र हैं। जयपुर को जैनों की नगरी कहा जाता है। जयपुर की अपनी विशिष्ट परम्पराओं का इतना रंगारंग और सुदीर्घ इतिहास रहा है कि समग्र आकलन के लिए तो अनेक ग्रंथ भी कम पडेंगे। राजस्थान पत्रिका का स्तम्भ 'नगर परिक्रमा' यह कार्य अनेक दशकों तक करता रहा, फिर भी यह इतिहास पूरा नहीं हो पाया। हमारी तो बिसात ही क्या है
नितिन शर्मा (news with us)

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