Wednesday, November 18, 2009

टूट गया सपना

राजस्थान के नागरिकों का एक सपना सच होने से पहले ही टूट गया। पिछले दिनों जब यह निर्णय किया गया था कि इस बार महापौर व स्थानीय निकायों के अध्यक्षों को सीधे जनता चुनेगी, तो लगने लगा था कि शहरों की दशा सुधारने की दिशा में एक बडा कदम उठ गया है। नागरिक मन ही मन अपने नए महापौर या निकाय अध्यक्ष को लेकर मंसूबे बनाने लगे थे। उसके व्यक्तित्व और कार्यक्षमता को लेकर सपने देखने लगे थे। पर कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने ये सपने तोड दिए। इन पदों के उम्मीदवारों के रूप में वे ही घिसे-पिटे नाम! इन नामों को देख कर समझा जा सकता है कि भारत के राजनीतिक दलों को क्षुद्र राजनीतिक हानि-लाभ से बढकर कुछ सोचने की क्षमता विकसित करने में अभी बहुत समय लगेगा।
जिस तरह सीधे चुनाव की घोषणा हुई थी, उससे एक बार लगा था कि प्रदेश की दोनों प्रमुख पार्टियां इस बार मेयर, अध्यक्ष व सभापति पद के लिए कुछ चौंकाने वाले नाम ढूंढेंगी। जनता के सामने ऎसे व्यक्तित्वों को रखा जाएगा, जो अपने शहर को अपनी हथेली की तरह जानते हो। जिनके मन में शहर के लिए कुछ सपने हों। जो बीमार स्थानीय निकायों को भ्रष्टाचार और अव्यवस्था के शिकंजे से छुडा कर शहर का कायापलट कर सकें। नागरिकों को अपने साथ जोडकर उनका जीवन सुखी बना सकें। शहर में आधारभूत सुविधाओं के लिए पैसा जुटा सकें और अपनी संवेदनशीलता व प्रशासनिक क्षमता के बूते पर सबको साथ लेकर चल सकें। अब लगता है कि ये राजनीतिक दल केपटाउन की मेयर हेलेन जिले या ज्यूरिख के मेयर एल्मार लेडेरर्वर जैसे व्यक्ति तो सपनों में भी नहीं ढूंढ सकते, जिन्होंने अपने-अपने शहरों को विश्व के सबसे पसंदीदा शहर बना दिए। फिर क्या राजनीतिक दलों के लिए यह जरूरी है कि किसी राजनीतिक व्यक्ति का नाम ही चुना जाए। शहर का प्रथम नागरिक क्या कोई साहित्यकार, कोई कलाकार, कोई दमदार पूर्व प्रशासक या ऎसा व्यक्ति नहीं हो सकता, जिसमें उपरोक्त गुण हों
सीधे चुनाव की स्थिति में होना तो यह था कि इस तरह के कुछ नाम जनता के सामने रखे जाते। शहर के विकास के लिए उनके सपनों को लेकर वाद-विवाद, चर्चा-परिचर्चाएं होतीं। पर ऎसा कुछ नहीं हुआ। नामों के चयन में वही सब हुआ जो विधानसभा-लोकसभा चुनावों में होता है। जिन के सिर पर बडे नेताओं का हाथ था, उन्हें चुन लिया गया। भले ही शहर के विकास से उनका दूर-दूर का नाता न हो, नेताओं के आगे-पीछे घूमना उन्हें अच्छी तरह आता हो। राजनीतिक दलों की कमान पढे-लिखे युवाओं के हाथ में आने से यह उम्मीद थी कि वे कुछ नए तरीके से सोचेगे, पर वे भी लकीर के फकीर साबित हुए। सभी दलों में एक ही मंत्र चला 'सभी बडे नेताओं को खुश रखो ताकि अपनी कुर्सी सलामत रहे।' क्या ही अच्छा होता कि अच्छे नामों के लिए शहर के प्रबुद्ध लोगों से राय ली जाती।
पर्चे भरने और नाम सामने आने के बाद लोगों की उम्मीदों पर पानी फिर गया है। फिर भी बाजी पूरी तरह से जनता के हाथों से नहीं निकली है। जनता चाहे तो दोनों राजनीतिक दलों को अपना अपमान करने का मजा चखा सकती है। मतदान के समय राजनीतिक पूर्वाग्रहों से उठकर सर्वश्रेष्ठ प्रत्याशी को चुनें, तभी शहर का भला हो सकता है। नेताओं के प्यादे ऎसे महत्वपूर्ण पदों पर बैठते रहे तो भ्रष्टाचार, अव्यवस्था और अराजकता का राज यूं ही चलता रहेगा। शहर की सांस अग्निकाण्डों, ट्रेफिक जामों और स्वाइन फ्लू- डेंगू के खतरों तले यूं ही घुटती रहेगी।
साभार : भुवनेश जैन, राजस्थान पत्रिका
नितिन शर्मा (news with us)

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