पेट्रोल, डीजल, केरोसिन और रसोई गैस की कीमतों में इजाफे के खिलाफ विपक्षी दलों ने शनिवार को देशभर में विरोध प्रदर्शन किए। बंद की वजह से देश के कई शहरों में सामान्य जनजीवन प्रभावित हुआ।
भाजपा और वामपंथी दलों से सम्बद्ध संगठनों ने राजधानी समेत देश भर में धरना प्रदर्शन किया। भाजपा की दिल्ली इकाई ने राजधानी में दस चौराहों पर चक्का जाम किया और गिरफ्तारी दी। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में वामपंथी दलों से सम्बद्ध मजदूर संगठनों ने मूल्यवृद्धि के खिलाफ बंद का अह्वान किया।
प. बंगाल में सीटू के 24 घण्टे के परिवहन बंद के चलते लोगों को भारी दिक्कतों का सामना करना पडा। भाजपा की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष विजेन्द्र गुप्ता ने कहा कि सरकार निरंकुश होकर काम कर रही है और उसे आम आदमी की बजाय औद्योगिक घरानों की चिंता ज्यादा सता रही है। मुम्बई में भाजपा सांसद गोपीनाथ मुंडे की अगुवाई में राज्य सचिवालय पर प्रदर्शन कर रहे बडी संख्या में पार्टी के कार्यकर्ताओं को पुलिस ने हिरासत में ले लिया। वाम लोकतांत्रिक मोर्चे की 12 घंटे की हडताल से केरल में जनजीवन बुरी तरह प्रभावित रहा।
संप्रग को तोडने की कोशिशमहंगाई के बहाने विपक्ष सरकार को घेरने के साथ संप्रग को तोडने की रणनीति भी अपना रहा है। जद (यू) अध्यक्ष शरद यादव का समूचे विपक्ष के साथ संप्रग के तृणमूल कांग्रेस, राकांपा और द्रमुक को विरोधी मंच में आने का न्योता देना उसी रणनीति का हिस्सा है। जद-यू अध्यक्ष शरद यादव ने कहा कि सरकार विरोधी बात करना और सत्ता पर बने रहने की राजनीति ठीक नहीं है। यदि संप्रग से घटक दल सरकार के इस निर्णय के पक्ष में नहीं है तो उन्हें विपक्ष के साथ आना चाहिए।
भाजपा का 25 जिलों में धरनाजयपुर. पेट्रोलियम पदार्थो के दाम बढाए जाने के विरोध में भाजपा ने शनिवार को जयपुर समेत 25 जिलों में धरना दिया। राष्ट्रीय महासचिव वसुंधरा राजे और प्रदेश अध्यक्ष अरूण चतुर्वेदी राजस्थान से बाहर दौरे पर गए हैं इसलिए कहीं धरने में शामिल नहीं हो सके। चतुर्वेदी ने टेलीफोन पर बताया कि बचे हुए 6-7 जिलों में कार्यकर्ता रविवार को धरना देंगे जबकि अलवर में 30 जून को बडे स्तर पर विरोध प्रदर्शन का आयोजन होगा। इस बीच राजधानी जयपुर में भाजपा के प्रदर्शन को दौरान शहर के पार्टी विधायक शामिल नहीं हुए।
जनता की कमर तोडीजनता आसमान छूती कीमतों से पहले ही परेशान थी और अब सरकार ने बडे औद्योगिक घरानों को मुनाफा पहुंचाने के लिए पेट्रोलियम पदार्थो के दाम बढाकर उसकी कमर और तोड दी। वृंदा करात, माकपा नेता
आदमी की चिंता नहीं सरकार को आम आदमी की कोई चिंता नहीं है और राष्ट्रमण्डल खेलों के नाम पर करोडों रूपए खर्च हो रहे हैं। सरकार तेल कम्पनियों का घाटा पूरा करने में लगी है। मुलायम सिंह यादव, सपा अध्यक्ष
Saturday, June 26, 2010
पाक में तिरंगे का अपमान
इस्लामाबाद। पाक में तिरंगे का एक बार फिर अपमान हुआ है। शुक्रवार रात गृहमंत्री पी. चिदम्बरम और पाकिस्तान के गृहमंत्री रहमान मलिक की बैठक के दौरान साइडटेबल पर पाक राष्ट्रध्वज के साथ तिरंगा उल्टा लगा दिया गया। तिरंगे में केसरिया रंग ऊपर होना चाहिए, लेकिन हरे रंग को ऊपर करके झण्डा लगा था। चिदम्बरम ने गलती पकडी और मलिक को जानकारी दी।
मलिक ने खेद जताते हुए गलती सुधारने के आदेश दिए। चिदम्बरम ने शनिवार को पत्रकारों से कहा, 'मैंने गलती पकडी और उन्होंने (मलिक) ने उसे सुधार लिया। वर्ष 2005 में तत्कालीन पाक राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भारत यात्रा पर आए थे तो उनके विमान में भी तिरंगे को उल्टा लगाया गया था।
मलिक ने खेद जताते हुए गलती सुधारने के आदेश दिए। चिदम्बरम ने शनिवार को पत्रकारों से कहा, 'मैंने गलती पकडी और उन्होंने (मलिक) ने उसे सुधार लिया। वर्ष 2005 में तत्कालीन पाक राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भारत यात्रा पर आए थे तो उनके विमान में भी तिरंगे को उल्टा लगाया गया था।
प्रेमी संग पकडी गई बहू
बीकानेर। अपहरण की झूठी कहानी रच कर शुक्रवार को मुरलीधर व्यास कॉलोनी स्थित ससुराल से लाखों रूपए के जेवरात ले कर भागी नवविवाहिता शनिवार तडके श्रीगंगानगर में प्रेमी के साथ पकडी गई। उनके पास से जेवरात से भरा बैग भी बरामद हुआ है। दोनों श्रीगंगानगर से पंजाब भागने की फिराक में थे। श्रीगंगानगर पुलिस ने दोनों को बीकानेर पुलिस के सुपुर्द कर दिया।
प्रशिक्षु आईपीएस राहुल कोटकी ने बताया कि शनिवार तडके चार बजे सोनिया चुघ (23) को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम निवासी गुरविंद्र सिंह (25) पुत्र प्रीतम सिंह के साथ संदिग्ध अवस्था में घूमते गिरफ्तार किया। दोनों को थाने लाकर बैग की तलाशी लेने पर उसमें से लाखों के गहने व नकदी बरामद हुई। पूछताछ में गुरविन्द्र ने पुलिस को बताया कि सोनिया उसके गांव सुनाम के सुभाष खत्री की पुत्री है। शादी से पहले से दोनों के प्रेम संबंध हैं। करीब छह महीने पहले बीकानेर में करमीसर रोड स्थित मुरलीधर कालोनी निवासी विशाल के साथ उसकी शादी हुई थी। वह पंजाब से ट्रेन से श्रीगंगानगर पहुंचा, उधर से सोनिया अपहरण की कहानी रचकर बीकानेर से अकेली ही बस में सवार होकर श्रीगंगानगर पहुंच गई। जहां दोनों का मिलाप हो गया। वे यहां से पंजाब जाने की फिराक में थे।
भ्रमित करती रही सोनियासोनिया ने पुलिस को भ्रमित करने के लिए अलग-अलग नम्बर से घर फोन कर उसका अपहरण होने की बात कहती रही। उसने शुक्रवार रात अपने पति विशाल को मोबाइल पर कहा था कि मैं शोभासर स्थित एक ढाबे पर अपहरणकर्ताओं के चंगुल में हूं। वे लोग चाय पी रहे हैं और मैं उनसे अलग होकर आपसे बात कर रही हूं।
प्रशिक्षु आईपीएस राहुल कोटकी ने बताया कि शनिवार तडके चार बजे सोनिया चुघ (23) को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम निवासी गुरविंद्र सिंह (25) पुत्र प्रीतम सिंह के साथ संदिग्ध अवस्था में घूमते गिरफ्तार किया। दोनों को थाने लाकर बैग की तलाशी लेने पर उसमें से लाखों के गहने व नकदी बरामद हुई। पूछताछ में गुरविन्द्र ने पुलिस को बताया कि सोनिया उसके गांव सुनाम के सुभाष खत्री की पुत्री है। शादी से पहले से दोनों के प्रेम संबंध हैं। करीब छह महीने पहले बीकानेर में करमीसर रोड स्थित मुरलीधर कालोनी निवासी विशाल के साथ उसकी शादी हुई थी। वह पंजाब से ट्रेन से श्रीगंगानगर पहुंचा, उधर से सोनिया अपहरण की कहानी रचकर बीकानेर से अकेली ही बस में सवार होकर श्रीगंगानगर पहुंच गई। जहां दोनों का मिलाप हो गया। वे यहां से पंजाब जाने की फिराक में थे।
भ्रमित करती रही सोनियासोनिया ने पुलिस को भ्रमित करने के लिए अलग-अलग नम्बर से घर फोन कर उसका अपहरण होने की बात कहती रही। उसने शुक्रवार रात अपने पति विशाल को मोबाइल पर कहा था कि मैं शोभासर स्थित एक ढाबे पर अपहरणकर्ताओं के चंगुल में हूं। वे लोग चाय पी रहे हैं और मैं उनसे अलग होकर आपसे बात कर रही हूं।
"दसवीं की छात्रा ने स्कूल के शौचालय में जन्मी बच्ची
रामानाथपुरम। तमिलनाडु के रामानाथपुरम में एक अनोखी घटना के तहत 15 साल की एक छात्रा ने स्कूल के शौचालय में एक बच्ची को जन्म देने के बाद उसे वहीं छोड दिया। हफ्ते के शुरूआत में छात्रा को स्कूल प्रबंधन ने एक स्थानांतरण प्रमाणपत्र जारी कर दिया है। प्रबंधन ने इस मुद्दे के तेजी से विवाद का रूप धारण करने के बाद यह कदम उठाया।
मुख्य शिक्षा अधिकारी बालासुब्रमणीयन ने बताया कि न तो उसके माता-पिता और न ही उसके शिक्षक इस बात से अवगत थे कि यह छात्रा गर्भवती थी, क्योंकि वह बहुत मोटी है। छात्रा ने कक्षा के दौरान शौचालय जाने की इजाजत मांगी थी, लेकिन वह (छात्रा) बच्ची को जन्म देने के बाद उसे वहीं छोड कर और बिना किसी को सूचना दिये वापस कक्षा में आ गई। स्कूल के अधिकारियों ने जब बच्ची के रोने की आवाज सुनी, तब वे उसे अस्पताल ले गये।
मुख्य शिक्षा अधिकारी बालासुब्रमणीयन ने बताया कि न तो उसके माता-पिता और न ही उसके शिक्षक इस बात से अवगत थे कि यह छात्रा गर्भवती थी, क्योंकि वह बहुत मोटी है। छात्रा ने कक्षा के दौरान शौचालय जाने की इजाजत मांगी थी, लेकिन वह (छात्रा) बच्ची को जन्म देने के बाद उसे वहीं छोड कर और बिना किसी को सूचना दिये वापस कक्षा में आ गई। स्कूल के अधिकारियों ने जब बच्ची के रोने की आवाज सुनी, तब वे उसे अस्पताल ले गये।
Wednesday, June 16, 2010
भोपाल हम शर्मिंदा हैं
यह देश तुम्हें न्याय नहीं दिला सका : भोपाल गैस त्रासदी पर न्यायालय के निर्णय पर कोई टिप्पणी करने का हमें अधिकार नहीं। हम गणतंत्र देश के वासी हैं, जहां हर तरह की आजादी है लेकिन सत्ता और न्याय के सर्वोच्च पद इतने ऊंचे हैं कि वहां आम भारतीय के ये अधिकार भी बौने लगते हैं। इन पर उंगली उठाना यानी अपनी सामत बुलाना। यह गणतांत्रिक देश हैं यहां हर तरह की आजादी है। अगर रसूख है, ऊंची पहुंच है तो हजारों बेगुनाहों की मौत किसी की वजह से क्यों न हुई हो, उसे छुट्टा घूमने की आजादी है। भोपाल गैस त्रासदी में यही हुआ।
इस त्रासदी में जान गंवाने वाले, अब तक जिंदगी-मौत से जूझने वाले लोगों को न्याय दिलाने के लिए 25 साल तक न्यायिक प्रक्रिया कछुए की चाल चली। 15000 से भी ऊपर जाने इस त्रासदी ने लीं और पांच लाख से भी ज्यादा लोग जिससे प्रभावित हुए। ये लाखों लोग आज भी उस कष्ट को झेल रहे हैं जो गैस त्रासदी ने इन्हें दिया है। उस गुनाह के छह दोषियों को सजा मिली सिर्फ 2 साल की और साथ ही 1-1 लाख रुपये का आर्थिक दंड। इनके अपराध को जमानती माना गया और जाहिर है उन्हें जमानत मिलने में मुश्किल नहीं हुई। आज कई मामलों में फास्ट ट्रैक अदालतें बनतीं हैं, उनमें फैसले भी जल्द होते हैं फिर देश क्या दुनिया की इस सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के लिए ऐसा क्यों नहीं हुआ? इतने दिन चली न्यायिक प्रक्रिया के बाद यह नतीजा? क्या यह उन लोगों के साथ अन्याय नहीं जिन्होंने औद्योगिक प्रगति की इतनी बड़ी कीमत चुकाई?
आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां पैसा कमाने की आपाधापी में औद्योगिक इकाइयां लगाती हैं और सुरक्षा के सामान्य नियमों तक की कभी-कभी अनदेखी करती हैं जिसका खामियाजा भोपाल जैसी त्रासदियों में निरीह नागरिकों को भोगना पड़ता है। आज भोपाल के पीडि़त लोगों को उचित न्याय नहीं मिला तो इसके लिए देश को, हम सबको शर्मिंदा होना चाहिए कि हम अपने ही नागरिकों को न्याय नहीं दिला सके। बल्कि देश के ऊंचे पदों पर आसीन कई नौकरशाह और सत्ता के कई केंद्रों पर भी इसे लेकर उंगलियां उठने लगी हैं कि किस तरह भोपाल गैस त्रासदी के दोषी वारेन एंडरनसन को देश से भागने की सुविधा मुहैया करायी गयी। उसे सरकारी वाहन दिये गये और सलूट तक किया गया। ये खबरें अगर आज आम हैं तो इनका कोई आधार तो होगा ही। यों ही कोई किसी पर इतना बड़ा आरोप क्यों लगाने लगा। यह जांच का विषय है और जांच करके सच्चाई बाहर लायी जानी चाहिए।
अगर न्यायपालिका भोपाल गैस त्रासदी के गुनहगारों को कड़ी सजा नहीं दिला सकी तो जाहिर कि या तो यह मामला असरदार ढंग से नहीं पेश किया गया या जरूरी साक्ष्य ही नहीं जुटाये जा सके कि दोषियों को कड़ी सजा देने को न्यायालय बाध्य होता। इसके लिए दोषी किसे करार दिया जाये? लगता तो यह है कि अगर कुछ गैर सरकारी संस्थाएं इन गैस पीड़ितों के साथ न खड़ी होतीं तो शायद इनके दुख की दास्तान न न्यायालय पहुंचती और न ही उस पर कार्रवाई ही हो पाती। आखिर इतनी बड़ी औद्योगिक त्रासदी और उससे पीड़ित लाखों लोगों के प्रति ऐसी उदासीनता क्यों? इसके पीछे किन शक्तियों का हाथ है या उनकी और सत्ता के किस केंद्र की दुरभिसंधि है? घटना ने अब राजनीतिक रंग ले लिया है। अब हर राजनेता भोपाल के गैस पीड़ितों का खैरख्वाह बन उनकी आवाज उठाने में लग गया है। अच्छा मौका है राजनीतिक रोटियां सेंकने का। पता नहीं 26 सालों तक ये नेता कहां थे जो गैर सरकारी संस्थाओं को इन गरीबों की लड़ाई लड़नी पड़ी।
आज चारों ओर यही सवाल उठाये जा रहे हैं कि यूनियन कारबाइड के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन को गिरफ्तार करने के बाद भी जमानत पर रिहा कर देश से बाहर क्यों जाने दिया गया। एंडरसन को मध्यप्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार करने के बाद 7 दिसंबर 1984 को जमानत पर रिहा कर दिया। अगर भोपाल के तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह की बात मानी जाये तो उनके अनुसार एंडरसन रिहा होने के बाद कार (जो एक राजनेता की बतायी जाती है) से हवाई अड्डे गये और वहां से दिल्ली के रास्ते अमरीका उड़ गये और फिर कभी नहीं लौटे। उन्हें बार-बार अदालत की ओर से समन जारी किये गये लेकिन वे भारत नहीं आये। इसके बाद 1992 में उन्हें भगोड़ा घोषित कर दिया गया। भारत सरकार ने एंडरसन के प्रत्यर्पण का अनुरोध अमरीका सरकार से किया जो 2004 में ठुकरा दिया गया। अमरीकी मूल की कंपनी यूनियन कारबाइड के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन अब 89 वर्ष के हो गये हैं ऐसे में उनके न्यायिक प्रक्रिया के लिए भारत प्रत्यर्पण की आशा तो क्षीण ही है लेकिन भोपाल गैस त्रासदी के लाखों पीड़ितों को उचित मुआवजा दिला कर कम से कम उनके दर्द में थोड़ी तो मदद की ही जा सकती है।
भोपाल गैस त्रासदी लापरवाही और उदासीनता का नतीजा है। याद है तब हम आनंद बाजार प्रकाशन समूह की पत्रिका ’रविवार’ में थे। भोपाल गैस त्रासदी के पहले भी वहां स्थित यूनियन कारबाइड में गैस रिसाव की घटना हुई थी जिसमें कई श्रमिक प्रभावित हुए थे। उस वक्त एक स्थानीय पत्रकार के हवाले से यह रिपोर्ट स्थानीय समाचारपत्र में छपी थी। इस रिसाव के बारे में कहा गया था कि यह कभी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकता है। वही हुआ भी। 2-3 दिसंबर 1984 की रात मौत दबे पांव आयी और जाड़े की उस रात में नींद में सोये हजारों लोगों को मौत की नींद सुला गयी और लाखों को सारी जिंदगी बीमारियों से जूझने और तिल-तिल कर मरने को मजबूर कर गयी। कारखाने से रिसी कई टन मिथाइल आइसो साईनेट गैस ने हजारों जानें ले लीं।
अगर उस पत्रकार की बात को प्रबंधन ने गंभीरता से लिया होता और मरम्मत आदि की गयी होती तो शायद इतनी बड़ी त्रासदी न होती। कारखाना घनी आबादी के पास है इसलिए मौतें और ज्यादा हुईं। जिन लोगों ने गैस त्रासदी से मरे लोगों की बिखरी लाशों को देखा है, वे ताजिंदगी इस खौफनाक मंजर को भुला नहीं पायेंगे। इस त्रासदी पर एक पत्रकार की अंग्रेजी में लिखी पुस्तक की समीक्षा ’रविवार’ के लिए मैंने ही की थी। उस पुस्तक के कवर का चित्र इस त्रासदी की भयावहता और खौफ को उजागर करने के लिए काफी था। कवर में एक मृत शिशु का चित्र था , पथरायी आंखों वाला मृत शिशु का शव जिसे पिता के हाथ जमीन में दफना रहे हैं।
रोंगटे खड़े कर देनेवाला वही चित्र अब अखबारों में उन लोगों के बैनरों में दिख रहा है जो भोपाल गैस त्रासदी पर आये फैसले से नाखुश हैं और जगह-जगह इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। जिस किसी भी इनसान में तनिक भी इनसानियत या संवेदना है उसके दिल को हिला देने के लिए वह चित्र ही काफी है। पर पता नहीं सरकारों का दिल क्यों नहीं दहला। आखिर वक्त रहते वारेन एंडरसन के प्रत्यर्पण की गंभीर कोशिश क्यों नहीं की गयी? उसके बाद भी जो दोषी पाये गये उन्हें इतनी कम सजा क्यों दी गयी? होना तो यह चाहिए था कि इस गंभीर अपराध के लिए ऐसी सजा दी जाती जो आने वाले वक्त के लिए सबक होती और जिसके खौफ से कोई निरीह लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करने से डरता। आखिर ऐसा क्यों नहीं हुआ? ऐसे हजारों क्यों हैं जिनके कठघरे में हर वह शख्स, नौकरशाह, सत्ता के वे केंद्र खड़े हैं जिन्होंने इस हादसे से पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने में उदासीनता दिखायी और दोषियों के प्रति नरमी बरती।
आज राजनेता, सामाजिक संगठन और दूसरे कई संगठन भोपाल गैस त्रासदी पर आये निर्णय से असंतुष्ट हैं और चाहते हैं कि एक बार फिर नये सिरे न्यायिक प्रक्रिया चले और बिना किसी लागलपेट के सही-सही जांच और कार्रवाई हो। एंडरसन जिस कार से भोपाल से हवाई अड्डे तक गये वह एक कांग्रेसी नेता की बतायी जाती है। इस बारे में तरह-तरह की अफवाहें और खबरें हवा में हैं जिनमें से कुछ तो यहां तक संकेत करती हैं कि किसी बड़े नेता के इशारे पर एंडरसन को भारत से जाने की सुविधा दी गयी। इस बारे में और कीचड़ उछले, कुछ और दामन दागदार हों इससे पहले सब कुछ साफ होना चाहिए। अब तो कांग्रेसी नेताओं ने भी यह कहना शुरू कर दिया है कि आरोप-प्रत्यारोप बंद होना चाहिए और अगर कुछ सच्चाई है तो उसे सामने आना चाहिए। जिन्हें इसके बारे में सच्चाई पता है उन्हें भी मौन तोड़ सामने आना चाहिए क्योंकि कहा भी है-‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।’
ऐसा नहीं लगता कि देश में कोई भी व्यक्ति ऐसा होगा जो चाहेगा कि उसका इतिहास दागदार हो। जिसके पास जो भी जानकारी है उसे बाहर आना चाहिए, चाहे नौकरशाह हो या नेता अगर इस मामले को हलका करने, इसके दोषियों को बचाने की किसी ने भी कोशिश की है तो वह साफ होना चाहिए और उस पर नियमानुसार कार्रवाई भी होनी चाहिए। कारण,जो अभी हो रहा है, जिस तरह से आरोप-प्रत्यारोपों को दौर चल रहा है वह नागरिकों की शंकाओं को और बढ़ा रहा है। शंकाओं में जीता समाज कभी निश्चिंत या सुरक्षित नहीं हो सकता। उसे हमेशा यह आशंका रहेगी कि अगर न्याय दिलाने का यह हाल है तो भोपाल गैस त्रासदी जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति हो सकती है और उस पर न्याय पाने के लिए पीढ़ियों तक लोगों को इंतजार करना पड़ सकता है।
देश और देशवासियों के हित में यही है कि ऐसी घटनाओं की सही पड़ताल और उस पर उचित कार्रवाई हो। यह देश के नागरिकों की न सिर्फ आशा बल्कि अधिकार भी है। अब जब सरकार ने आरटीआई यानी सूचना के अधिकारी की सहूलियत राष्ट्र को दी है तो फिर ऐसी घटनाओं पर तैयार किये गये मामलों के बारे में भी यह जानकारी सामने आनी चाहिए कि यह मामला इतना लचर क्यों तैयार किया गया कि इसमें मामूली अपराध जैसी सजा मिली और मुख्य अभियुक्त तक न्याय के हाथ पहुंचे तक नहीं। यह सवाल है जो देश आज देश के कर्णधारों और इस मामले की न्यायिक प्रक्रिया से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े अधिकारियों से पूछना चाहता है। इसके जवाब देने के लिए वे बाध्य हैं क्योंकि इसके लिए उनमें से अनेक शपथबद्ध हैं।
लेखक राजेश त्रिपाठी कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं और तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इन दिनों हिंदी दैनिक सन्मार्ग में कार्यरत हैं। राजेश से संपर्क
' );
//-->
rajeshtripathi@sify.com
' );
//-->
This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it
' );
//-->
के जरिए कर सकते हैं। वे ब्लागर भी हैं और अपने ब्लाग में समसामयिक विषयों पर अक्सर लिखते रहते यह देश तुम्हें न्याय नहीं दिला सका : भोपाल गैस त्रासदी पर न्यायालय के निर्णय पर कोई टिप्पणी करने का हमें अधिकार नहीं। हम गणतंत्र देश के वासी हैं, जहां हर तरह की आजादी है लेकिन सत्ता और न्याय के सर्वोच्च पद इतने ऊंचे हैं कि वहां आम भारतीय के ये अधिकार भी बौने लगते हैं। इन पर उंगली उठाना यानी अपनी सामत बुलाना। यह गणतांत्रिक देश हैं यहां हर तरह की आजादी है। अगर रसूख है, ऊंची पहुंच है तो हजारों बेगुनाहों की मौत किसी की वजह से क्यों न हुई हो, उसे छुट्टा घूमने की आजादी है। भोपाल गैस त्रासदी में यही हुआ।
इस त्रासदी में जान गंवाने वाले, अब तक जिंदगी-मौत से जूझने वाले लोगों को न्याय दिलाने के लिए 25 साल तक न्यायिक प्रक्रिया कछुए की चाल चली। 15000 से भी ऊपर जाने इस त्रासदी ने लीं और पांच लाख से भी ज्यादा लोग जिससे प्रभावित हुए। ये लाखों लोग आज भी उस कष्ट को झेल रहे हैं जो गैस त्रासदी ने इन्हें दिया है। उस गुनाह के छह दोषियों को सजा मिली सिर्फ 2 साल की और साथ ही 1-1 लाख रुपये का आर्थिक दंड। इनके अपराध को जमानती माना गया और जाहिर है उन्हें जमानत मिलने में मुश्किल नहीं हुई। आज कई मामलों में फास्ट ट्रैक अदालतें बनतीं हैं, उनमें फैसले भी जल्द होते हैं फिर देश क्या दुनिया की इस सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के लिए ऐसा क्यों नहीं हुआ? इतने दिन चली न्यायिक प्रक्रिया के बाद यह नतीजा? क्या यह उन लोगों के साथ अन्याय नहीं जिन्होंने औद्योगिक प्रगति की इतनी बड़ी कीमत चुकाई?
आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां पैसा कमाने की आपाधापी में औद्योगिक इकाइयां लगाती हैं और सुरक्षा के सामान्य नियमों तक की कभी-कभी अनदेखी करती हैं जिसका खामियाजा भोपाल जैसी त्रासदियों में निरीह नागरिकों को भोगना पड़ता है। आज भोपाल के पीडि़त लोगों को उचित न्याय नहीं मिला तो इसके लिए देश को, हम सबको शर्मिंदा होना चाहिए कि हम अपने ही नागरिकों को न्याय नहीं दिला सके। बल्कि देश के ऊंचे पदों पर आसीन कई नौकरशाह और सत्ता के कई केंद्रों पर भी इसे लेकर उंगलियां उठने लगी हैं कि किस तरह भोपाल गैस त्रासदी के दोषी वारेन एंडरनसन को देश से भागने की सुविधा मुहैया करायी गयी। उसे सरकारी वाहन दिये गये और सलूट तक किया गया। ये खबरें अगर आज आम हैं तो इनका कोई आधार तो होगा ही। यों ही कोई किसी पर इतना बड़ा आरोप क्यों लगाने लगा। यह जांच का विषय है और जांच करके सच्चाई बाहर लायी जानी चाहिए।
अगर न्यायपालिका भोपाल गैस त्रासदी के गुनहगारों को कड़ी सजा नहीं दिला सकी तो जाहिर कि या तो यह मामला असरदार ढंग से नहीं पेश किया गया या जरूरी साक्ष्य ही नहीं जुटाये जा सके कि दोषियों को कड़ी सजा देने को न्यायालय बाध्य होता। इसके लिए दोषी किसे करार दिया जाये? लगता तो यह है कि अगर कुछ गैर सरकारी संस्थाएं इन गैस पीड़ितों के साथ न खड़ी होतीं तो शायद इनके दुख की दास्तान न न्यायालय पहुंचती और न ही उस पर कार्रवाई ही हो पाती। आखिर इतनी बड़ी औद्योगिक त्रासदी और उससे पीड़ित लाखों लोगों के प्रति ऐसी उदासीनता क्यों? इसके पीछे किन शक्तियों का हाथ है या उनकी और सत्ता के किस केंद्र की दुरभिसंधि है? घटना ने अब राजनीतिक रंग ले लिया है। अब हर राजनेता भोपाल के गैस पीड़ितों का खैरख्वाह बन उनकी आवाज उठाने में लग गया है। अच्छा मौका है राजनीतिक रोटियां सेंकने का। पता नहीं 26 सालों तक ये नेता कहां थे जो गैर सरकारी संस्थाओं को इन गरीबों की लड़ाई लड़नी पड़ी।
आज चारों ओर यही सवाल उठाये जा रहे हैं कि यूनियन कारबाइड के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन को गिरफ्तार करने के बाद भी जमानत पर रिहा कर देश से बाहर क्यों जाने दिया गया। एंडरसन को मध्यप्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार करने के बाद 7 दिसंबर 1984 को जमानत पर रिहा कर दिया। अगर भोपाल के तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह की बात मानी जाये तो उनके अनुसार एंडरसन रिहा होने के बाद कार (जो एक राजनेता की बतायी जाती है) से हवाई अड्डे गये और वहां से दिल्ली के रास्ते अमरीका उड़ गये और फिर कभी नहीं लौटे। उन्हें बार-बार अदालत की ओर से समन जारी किये गये लेकिन वे भारत नहीं आये। इसके बाद 1992 में उन्हें भगोड़ा घोषित कर दिया गया। भारत सरकार ने एंडरसन के प्रत्यर्पण का अनुरोध अमरीका सरकार से किया जो 2004 में ठुकरा दिया गया। अमरीकी मूल की कंपनी यूनियन कारबाइड के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन अब 89 वर्ष के हो गये हैं ऐसे में उनके न्यायिक प्रक्रिया के लिए भारत प्रत्यर्पण की आशा तो क्षीण ही है लेकिन भोपाल गैस त्रासदी के लाखों पीड़ितों को उचित मुआवजा दिला कर कम से कम उनके दर्द में थोड़ी तो मदद की ही जा सकती है।
भोपाल गैस त्रासदी लापरवाही और उदासीनता का नतीजा है। याद है तब हम आनंद बाजार प्रकाशन समूह की पत्रिका ’रविवार’ में थे। भोपाल गैस त्रासदी के पहले भी वहां स्थित यूनियन कारबाइड में गैस रिसाव की घटना हुई थी जिसमें कई श्रमिक प्रभावित हुए थे। उस वक्त एक स्थानीय पत्रकार के हवाले से यह रिपोर्ट स्थानीय समाचारपत्र में छपी थी। इस रिसाव के बारे में कहा गया था कि यह कभी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकता है। वही हुआ भी। 2-3 दिसंबर 1984 की रात मौत दबे पांव आयी और जाड़े की उस रात में नींद में सोये हजारों लोगों को मौत की नींद सुला गयी और लाखों को सारी जिंदगी बीमारियों से जूझने और तिल-तिल कर मरने को मजबूर कर गयी। कारखाने से रिसी कई टन मिथाइल आइसो साईनेट गैस ने हजारों जानें ले लीं।
अगर उस पत्रकार की बात को प्रबंधन ने गंभीरता से लिया होता और मरम्मत आदि की गयी होती तो शायद इतनी बड़ी त्रासदी न होती। कारखाना घनी आबादी के पास है इसलिए मौतें और ज्यादा हुईं। जिन लोगों ने गैस त्रासदी से मरे लोगों की बिखरी लाशों को देखा है, वे ताजिंदगी इस खौफनाक मंजर को भुला नहीं पायेंगे। इस त्रासदी पर एक पत्रकार की अंग्रेजी में लिखी पुस्तक की समीक्षा ’रविवार’ के लिए मैंने ही की थी। उस पुस्तक के कवर का चित्र इस त्रासदी की भयावहता और खौफ को उजागर करने के लिए काफी था। कवर में एक मृत शिशु का चित्र था , पथरायी आंखों वाला मृत शिशु का शव जिसे पिता के हाथ जमीन में दफना रहे हैं।
रोंगटे खड़े कर देनेवाला वही चित्र अब अखबारों में उन लोगों के बैनरों में दिख रहा है जो भोपाल गैस त्रासदी पर आये फैसले से नाखुश हैं और जगह-जगह इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। जिस किसी भी इनसान में तनिक भी इनसानियत या संवेदना है उसके दिल को हिला देने के लिए वह चित्र ही काफी है। पर पता नहीं सरकारों का दिल क्यों नहीं दहला। आखिर वक्त रहते वारेन एंडरसन के प्रत्यर्पण की गंभीर कोशिश क्यों नहीं की गयी? उसके बाद भी जो दोषी पाये गये उन्हें इतनी कम सजा क्यों दी गयी? होना तो यह चाहिए था कि इस गंभीर अपराध के लिए ऐसी सजा दी जाती जो आने वाले वक्त के लिए सबक होती और जिसके खौफ से कोई निरीह लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करने से डरता। आखिर ऐसा क्यों नहीं हुआ? ऐसे हजारों क्यों हैं जिनके कठघरे में हर वह शख्स, नौकरशाह, सत्ता के वे केंद्र खड़े हैं जिन्होंने इस हादसे से पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने में उदासीनता दिखायी और दोषियों के प्रति नरमी बरती।
आज राजनेता, सामाजिक संगठन और दूसरे कई संगठन भोपाल गैस त्रासदी पर आये निर्णय से असंतुष्ट हैं और चाहते हैं कि एक बार फिर नये सिरे न्यायिक प्रक्रिया चले और बिना किसी लागलपेट के सही-सही जांच और कार्रवाई हो। एंडरसन जिस कार से भोपाल से हवाई अड्डे तक गये वह एक कांग्रेसी नेता की बतायी जाती है। इस बारे में तरह-तरह की अफवाहें और खबरें हवा में हैं जिनमें से कुछ तो यहां तक संकेत करती हैं कि किसी बड़े नेता के इशारे पर एंडरसन को भारत से जाने की सुविधा दी गयी। इस बारे में और कीचड़ उछले, कुछ और दामन दागदार हों इससे पहले सब कुछ साफ होना चाहिए। अब तो कांग्रेसी नेताओं ने भी यह कहना शुरू कर दिया है कि आरोप-प्रत्यारोप बंद होना चाहिए और अगर कुछ सच्चाई है तो उसे सामने आना चाहिए। जिन्हें इसके बारे में सच्चाई पता है उन्हें भी मौन तोड़ सामने आना चाहिए क्योंकि कहा भी है-‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।’
ऐसा नहीं लगता कि देश में कोई भी व्यक्ति ऐसा होगा जो चाहेगा कि उसका इतिहास दागदार हो। जिसके पास जो भी जानकारी है उसे बाहर आना चाहिए, चाहे नौकरशाह हो या नेता अगर इस मामले को हलका करने, इसके दोषियों को बचाने की किसी ने भी कोशिश की है तो वह साफ होना चाहिए और उस पर नियमानुसार कार्रवाई भी होनी चाहिए। कारण,जो अभी हो रहा है, जिस तरह से आरोप-प्रत्यारोपों को दौर चल रहा है वह नागरिकों की शंकाओं को और बढ़ा रहा है। शंकाओं में जीता समाज कभी निश्चिंत या सुरक्षित नहीं हो सकता। उसे हमेशा यह आशंका रहेगी कि अगर न्याय दिलाने का यह हाल है तो भोपाल गैस त्रासदी जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति हो सकती है और उस पर न्याय पाने के लिए पीढ़ियों तक लोगों को इंतजार करना पड़ सकता है।
देश और देशवासियों के हित में यही है कि ऐसी घटनाओं की सही पड़ताल और उस पर उचित कार्रवाई हो। यह देश के नागरिकों की न सिर्फ आशा बल्कि अधिकार भी है। अब जब सरकार ने आरटीआई यानी सूचना के अधिकारी की सहूलियत राष्ट्र को दी है तो फिर ऐसी घटनाओं पर तैयार किये गये मामलों के बारे में भी यह जानकारी सामने आनी चाहिए कि यह मामला इतना लचर क्यों तैयार किया गया कि इसमें मामूली अपराध जैसी सजा मिली और मुख्य अभियुक्त तक न्याय के हाथ पहुंचे तक नहीं। यह सवाल है जो देश आज देश के कर्णधारों और इस मामले की न्यायिक प्रक्रिया से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े अधिकारियों से पूछना चाहता है। इसके जवाब देने के लिए वे बाध्य हैं क्योंकि इसके लिए उनमें से अनेक शपथबद्ध हैं।
लेखक राजेश त्रिपाठी कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं और तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इन दिनों हिंदी दैनिक सन्मार्ग में कार्यरत हैं।
साभार bhadas4media
इस त्रासदी में जान गंवाने वाले, अब तक जिंदगी-मौत से जूझने वाले लोगों को न्याय दिलाने के लिए 25 साल तक न्यायिक प्रक्रिया कछुए की चाल चली। 15000 से भी ऊपर जाने इस त्रासदी ने लीं और पांच लाख से भी ज्यादा लोग जिससे प्रभावित हुए। ये लाखों लोग आज भी उस कष्ट को झेल रहे हैं जो गैस त्रासदी ने इन्हें दिया है। उस गुनाह के छह दोषियों को सजा मिली सिर्फ 2 साल की और साथ ही 1-1 लाख रुपये का आर्थिक दंड। इनके अपराध को जमानती माना गया और जाहिर है उन्हें जमानत मिलने में मुश्किल नहीं हुई। आज कई मामलों में फास्ट ट्रैक अदालतें बनतीं हैं, उनमें फैसले भी जल्द होते हैं फिर देश क्या दुनिया की इस सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के लिए ऐसा क्यों नहीं हुआ? इतने दिन चली न्यायिक प्रक्रिया के बाद यह नतीजा? क्या यह उन लोगों के साथ अन्याय नहीं जिन्होंने औद्योगिक प्रगति की इतनी बड़ी कीमत चुकाई?
आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां पैसा कमाने की आपाधापी में औद्योगिक इकाइयां लगाती हैं और सुरक्षा के सामान्य नियमों तक की कभी-कभी अनदेखी करती हैं जिसका खामियाजा भोपाल जैसी त्रासदियों में निरीह नागरिकों को भोगना पड़ता है। आज भोपाल के पीडि़त लोगों को उचित न्याय नहीं मिला तो इसके लिए देश को, हम सबको शर्मिंदा होना चाहिए कि हम अपने ही नागरिकों को न्याय नहीं दिला सके। बल्कि देश के ऊंचे पदों पर आसीन कई नौकरशाह और सत्ता के कई केंद्रों पर भी इसे लेकर उंगलियां उठने लगी हैं कि किस तरह भोपाल गैस त्रासदी के दोषी वारेन एंडरनसन को देश से भागने की सुविधा मुहैया करायी गयी। उसे सरकारी वाहन दिये गये और सलूट तक किया गया। ये खबरें अगर आज आम हैं तो इनका कोई आधार तो होगा ही। यों ही कोई किसी पर इतना बड़ा आरोप क्यों लगाने लगा। यह जांच का विषय है और जांच करके सच्चाई बाहर लायी जानी चाहिए।
अगर न्यायपालिका भोपाल गैस त्रासदी के गुनहगारों को कड़ी सजा नहीं दिला सकी तो जाहिर कि या तो यह मामला असरदार ढंग से नहीं पेश किया गया या जरूरी साक्ष्य ही नहीं जुटाये जा सके कि दोषियों को कड़ी सजा देने को न्यायालय बाध्य होता। इसके लिए दोषी किसे करार दिया जाये? लगता तो यह है कि अगर कुछ गैर सरकारी संस्थाएं इन गैस पीड़ितों के साथ न खड़ी होतीं तो शायद इनके दुख की दास्तान न न्यायालय पहुंचती और न ही उस पर कार्रवाई ही हो पाती। आखिर इतनी बड़ी औद्योगिक त्रासदी और उससे पीड़ित लाखों लोगों के प्रति ऐसी उदासीनता क्यों? इसके पीछे किन शक्तियों का हाथ है या उनकी और सत्ता के किस केंद्र की दुरभिसंधि है? घटना ने अब राजनीतिक रंग ले लिया है। अब हर राजनेता भोपाल के गैस पीड़ितों का खैरख्वाह बन उनकी आवाज उठाने में लग गया है। अच्छा मौका है राजनीतिक रोटियां सेंकने का। पता नहीं 26 सालों तक ये नेता कहां थे जो गैर सरकारी संस्थाओं को इन गरीबों की लड़ाई लड़नी पड़ी।
आज चारों ओर यही सवाल उठाये जा रहे हैं कि यूनियन कारबाइड के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन को गिरफ्तार करने के बाद भी जमानत पर रिहा कर देश से बाहर क्यों जाने दिया गया। एंडरसन को मध्यप्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार करने के बाद 7 दिसंबर 1984 को जमानत पर रिहा कर दिया। अगर भोपाल के तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह की बात मानी जाये तो उनके अनुसार एंडरसन रिहा होने के बाद कार (जो एक राजनेता की बतायी जाती है) से हवाई अड्डे गये और वहां से दिल्ली के रास्ते अमरीका उड़ गये और फिर कभी नहीं लौटे। उन्हें बार-बार अदालत की ओर से समन जारी किये गये लेकिन वे भारत नहीं आये। इसके बाद 1992 में उन्हें भगोड़ा घोषित कर दिया गया। भारत सरकार ने एंडरसन के प्रत्यर्पण का अनुरोध अमरीका सरकार से किया जो 2004 में ठुकरा दिया गया। अमरीकी मूल की कंपनी यूनियन कारबाइड के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन अब 89 वर्ष के हो गये हैं ऐसे में उनके न्यायिक प्रक्रिया के लिए भारत प्रत्यर्पण की आशा तो क्षीण ही है लेकिन भोपाल गैस त्रासदी के लाखों पीड़ितों को उचित मुआवजा दिला कर कम से कम उनके दर्द में थोड़ी तो मदद की ही जा सकती है।
भोपाल गैस त्रासदी लापरवाही और उदासीनता का नतीजा है। याद है तब हम आनंद बाजार प्रकाशन समूह की पत्रिका ’रविवार’ में थे। भोपाल गैस त्रासदी के पहले भी वहां स्थित यूनियन कारबाइड में गैस रिसाव की घटना हुई थी जिसमें कई श्रमिक प्रभावित हुए थे। उस वक्त एक स्थानीय पत्रकार के हवाले से यह रिपोर्ट स्थानीय समाचारपत्र में छपी थी। इस रिसाव के बारे में कहा गया था कि यह कभी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकता है। वही हुआ भी। 2-3 दिसंबर 1984 की रात मौत दबे पांव आयी और जाड़े की उस रात में नींद में सोये हजारों लोगों को मौत की नींद सुला गयी और लाखों को सारी जिंदगी बीमारियों से जूझने और तिल-तिल कर मरने को मजबूर कर गयी। कारखाने से रिसी कई टन मिथाइल आइसो साईनेट गैस ने हजारों जानें ले लीं।
अगर उस पत्रकार की बात को प्रबंधन ने गंभीरता से लिया होता और मरम्मत आदि की गयी होती तो शायद इतनी बड़ी त्रासदी न होती। कारखाना घनी आबादी के पास है इसलिए मौतें और ज्यादा हुईं। जिन लोगों ने गैस त्रासदी से मरे लोगों की बिखरी लाशों को देखा है, वे ताजिंदगी इस खौफनाक मंजर को भुला नहीं पायेंगे। इस त्रासदी पर एक पत्रकार की अंग्रेजी में लिखी पुस्तक की समीक्षा ’रविवार’ के लिए मैंने ही की थी। उस पुस्तक के कवर का चित्र इस त्रासदी की भयावहता और खौफ को उजागर करने के लिए काफी था। कवर में एक मृत शिशु का चित्र था , पथरायी आंखों वाला मृत शिशु का शव जिसे पिता के हाथ जमीन में दफना रहे हैं।
रोंगटे खड़े कर देनेवाला वही चित्र अब अखबारों में उन लोगों के बैनरों में दिख रहा है जो भोपाल गैस त्रासदी पर आये फैसले से नाखुश हैं और जगह-जगह इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। जिस किसी भी इनसान में तनिक भी इनसानियत या संवेदना है उसके दिल को हिला देने के लिए वह चित्र ही काफी है। पर पता नहीं सरकारों का दिल क्यों नहीं दहला। आखिर वक्त रहते वारेन एंडरसन के प्रत्यर्पण की गंभीर कोशिश क्यों नहीं की गयी? उसके बाद भी जो दोषी पाये गये उन्हें इतनी कम सजा क्यों दी गयी? होना तो यह चाहिए था कि इस गंभीर अपराध के लिए ऐसी सजा दी जाती जो आने वाले वक्त के लिए सबक होती और जिसके खौफ से कोई निरीह लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करने से डरता। आखिर ऐसा क्यों नहीं हुआ? ऐसे हजारों क्यों हैं जिनके कठघरे में हर वह शख्स, नौकरशाह, सत्ता के वे केंद्र खड़े हैं जिन्होंने इस हादसे से पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने में उदासीनता दिखायी और दोषियों के प्रति नरमी बरती।
आज राजनेता, सामाजिक संगठन और दूसरे कई संगठन भोपाल गैस त्रासदी पर आये निर्णय से असंतुष्ट हैं और चाहते हैं कि एक बार फिर नये सिरे न्यायिक प्रक्रिया चले और बिना किसी लागलपेट के सही-सही जांच और कार्रवाई हो। एंडरसन जिस कार से भोपाल से हवाई अड्डे तक गये वह एक कांग्रेसी नेता की बतायी जाती है। इस बारे में तरह-तरह की अफवाहें और खबरें हवा में हैं जिनमें से कुछ तो यहां तक संकेत करती हैं कि किसी बड़े नेता के इशारे पर एंडरसन को भारत से जाने की सुविधा दी गयी। इस बारे में और कीचड़ उछले, कुछ और दामन दागदार हों इससे पहले सब कुछ साफ होना चाहिए। अब तो कांग्रेसी नेताओं ने भी यह कहना शुरू कर दिया है कि आरोप-प्रत्यारोप बंद होना चाहिए और अगर कुछ सच्चाई है तो उसे सामने आना चाहिए। जिन्हें इसके बारे में सच्चाई पता है उन्हें भी मौन तोड़ सामने आना चाहिए क्योंकि कहा भी है-‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।’
ऐसा नहीं लगता कि देश में कोई भी व्यक्ति ऐसा होगा जो चाहेगा कि उसका इतिहास दागदार हो। जिसके पास जो भी जानकारी है उसे बाहर आना चाहिए, चाहे नौकरशाह हो या नेता अगर इस मामले को हलका करने, इसके दोषियों को बचाने की किसी ने भी कोशिश की है तो वह साफ होना चाहिए और उस पर नियमानुसार कार्रवाई भी होनी चाहिए। कारण,जो अभी हो रहा है, जिस तरह से आरोप-प्रत्यारोपों को दौर चल रहा है वह नागरिकों की शंकाओं को और बढ़ा रहा है। शंकाओं में जीता समाज कभी निश्चिंत या सुरक्षित नहीं हो सकता। उसे हमेशा यह आशंका रहेगी कि अगर न्याय दिलाने का यह हाल है तो भोपाल गैस त्रासदी जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति हो सकती है और उस पर न्याय पाने के लिए पीढ़ियों तक लोगों को इंतजार करना पड़ सकता है।
देश और देशवासियों के हित में यही है कि ऐसी घटनाओं की सही पड़ताल और उस पर उचित कार्रवाई हो। यह देश के नागरिकों की न सिर्फ आशा बल्कि अधिकार भी है। अब जब सरकार ने आरटीआई यानी सूचना के अधिकारी की सहूलियत राष्ट्र को दी है तो फिर ऐसी घटनाओं पर तैयार किये गये मामलों के बारे में भी यह जानकारी सामने आनी चाहिए कि यह मामला इतना लचर क्यों तैयार किया गया कि इसमें मामूली अपराध जैसी सजा मिली और मुख्य अभियुक्त तक न्याय के हाथ पहुंचे तक नहीं। यह सवाल है जो देश आज देश के कर्णधारों और इस मामले की न्यायिक प्रक्रिया से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े अधिकारियों से पूछना चाहता है। इसके जवाब देने के लिए वे बाध्य हैं क्योंकि इसके लिए उनमें से अनेक शपथबद्ध हैं।
लेखक राजेश त्रिपाठी कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं और तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इन दिनों हिंदी दैनिक सन्मार्ग में कार्यरत हैं। राजेश से संपर्क
' );
//-->
rajeshtripathi@sify.com
' );
//-->
This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it
' );
//-->
के जरिए कर सकते हैं। वे ब्लागर भी हैं और अपने ब्लाग में समसामयिक विषयों पर अक्सर लिखते रहते यह देश तुम्हें न्याय नहीं दिला सका : भोपाल गैस त्रासदी पर न्यायालय के निर्णय पर कोई टिप्पणी करने का हमें अधिकार नहीं। हम गणतंत्र देश के वासी हैं, जहां हर तरह की आजादी है लेकिन सत्ता और न्याय के सर्वोच्च पद इतने ऊंचे हैं कि वहां आम भारतीय के ये अधिकार भी बौने लगते हैं। इन पर उंगली उठाना यानी अपनी सामत बुलाना। यह गणतांत्रिक देश हैं यहां हर तरह की आजादी है। अगर रसूख है, ऊंची पहुंच है तो हजारों बेगुनाहों की मौत किसी की वजह से क्यों न हुई हो, उसे छुट्टा घूमने की आजादी है। भोपाल गैस त्रासदी में यही हुआ।
इस त्रासदी में जान गंवाने वाले, अब तक जिंदगी-मौत से जूझने वाले लोगों को न्याय दिलाने के लिए 25 साल तक न्यायिक प्रक्रिया कछुए की चाल चली। 15000 से भी ऊपर जाने इस त्रासदी ने लीं और पांच लाख से भी ज्यादा लोग जिससे प्रभावित हुए। ये लाखों लोग आज भी उस कष्ट को झेल रहे हैं जो गैस त्रासदी ने इन्हें दिया है। उस गुनाह के छह दोषियों को सजा मिली सिर्फ 2 साल की और साथ ही 1-1 लाख रुपये का आर्थिक दंड। इनके अपराध को जमानती माना गया और जाहिर है उन्हें जमानत मिलने में मुश्किल नहीं हुई। आज कई मामलों में फास्ट ट्रैक अदालतें बनतीं हैं, उनमें फैसले भी जल्द होते हैं फिर देश क्या दुनिया की इस सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के लिए ऐसा क्यों नहीं हुआ? इतने दिन चली न्यायिक प्रक्रिया के बाद यह नतीजा? क्या यह उन लोगों के साथ अन्याय नहीं जिन्होंने औद्योगिक प्रगति की इतनी बड़ी कीमत चुकाई?
आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां पैसा कमाने की आपाधापी में औद्योगिक इकाइयां लगाती हैं और सुरक्षा के सामान्य नियमों तक की कभी-कभी अनदेखी करती हैं जिसका खामियाजा भोपाल जैसी त्रासदियों में निरीह नागरिकों को भोगना पड़ता है। आज भोपाल के पीडि़त लोगों को उचित न्याय नहीं मिला तो इसके लिए देश को, हम सबको शर्मिंदा होना चाहिए कि हम अपने ही नागरिकों को न्याय नहीं दिला सके। बल्कि देश के ऊंचे पदों पर आसीन कई नौकरशाह और सत्ता के कई केंद्रों पर भी इसे लेकर उंगलियां उठने लगी हैं कि किस तरह भोपाल गैस त्रासदी के दोषी वारेन एंडरनसन को देश से भागने की सुविधा मुहैया करायी गयी। उसे सरकारी वाहन दिये गये और सलूट तक किया गया। ये खबरें अगर आज आम हैं तो इनका कोई आधार तो होगा ही। यों ही कोई किसी पर इतना बड़ा आरोप क्यों लगाने लगा। यह जांच का विषय है और जांच करके सच्चाई बाहर लायी जानी चाहिए।
अगर न्यायपालिका भोपाल गैस त्रासदी के गुनहगारों को कड़ी सजा नहीं दिला सकी तो जाहिर कि या तो यह मामला असरदार ढंग से नहीं पेश किया गया या जरूरी साक्ष्य ही नहीं जुटाये जा सके कि दोषियों को कड़ी सजा देने को न्यायालय बाध्य होता। इसके लिए दोषी किसे करार दिया जाये? लगता तो यह है कि अगर कुछ गैर सरकारी संस्थाएं इन गैस पीड़ितों के साथ न खड़ी होतीं तो शायद इनके दुख की दास्तान न न्यायालय पहुंचती और न ही उस पर कार्रवाई ही हो पाती। आखिर इतनी बड़ी औद्योगिक त्रासदी और उससे पीड़ित लाखों लोगों के प्रति ऐसी उदासीनता क्यों? इसके पीछे किन शक्तियों का हाथ है या उनकी और सत्ता के किस केंद्र की दुरभिसंधि है? घटना ने अब राजनीतिक रंग ले लिया है। अब हर राजनेता भोपाल के गैस पीड़ितों का खैरख्वाह बन उनकी आवाज उठाने में लग गया है। अच्छा मौका है राजनीतिक रोटियां सेंकने का। पता नहीं 26 सालों तक ये नेता कहां थे जो गैर सरकारी संस्थाओं को इन गरीबों की लड़ाई लड़नी पड़ी।
आज चारों ओर यही सवाल उठाये जा रहे हैं कि यूनियन कारबाइड के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन को गिरफ्तार करने के बाद भी जमानत पर रिहा कर देश से बाहर क्यों जाने दिया गया। एंडरसन को मध्यप्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार करने के बाद 7 दिसंबर 1984 को जमानत पर रिहा कर दिया। अगर भोपाल के तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह की बात मानी जाये तो उनके अनुसार एंडरसन रिहा होने के बाद कार (जो एक राजनेता की बतायी जाती है) से हवाई अड्डे गये और वहां से दिल्ली के रास्ते अमरीका उड़ गये और फिर कभी नहीं लौटे। उन्हें बार-बार अदालत की ओर से समन जारी किये गये लेकिन वे भारत नहीं आये। इसके बाद 1992 में उन्हें भगोड़ा घोषित कर दिया गया। भारत सरकार ने एंडरसन के प्रत्यर्पण का अनुरोध अमरीका सरकार से किया जो 2004 में ठुकरा दिया गया। अमरीकी मूल की कंपनी यूनियन कारबाइड के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन अब 89 वर्ष के हो गये हैं ऐसे में उनके न्यायिक प्रक्रिया के लिए भारत प्रत्यर्पण की आशा तो क्षीण ही है लेकिन भोपाल गैस त्रासदी के लाखों पीड़ितों को उचित मुआवजा दिला कर कम से कम उनके दर्द में थोड़ी तो मदद की ही जा सकती है।
भोपाल गैस त्रासदी लापरवाही और उदासीनता का नतीजा है। याद है तब हम आनंद बाजार प्रकाशन समूह की पत्रिका ’रविवार’ में थे। भोपाल गैस त्रासदी के पहले भी वहां स्थित यूनियन कारबाइड में गैस रिसाव की घटना हुई थी जिसमें कई श्रमिक प्रभावित हुए थे। उस वक्त एक स्थानीय पत्रकार के हवाले से यह रिपोर्ट स्थानीय समाचारपत्र में छपी थी। इस रिसाव के बारे में कहा गया था कि यह कभी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकता है। वही हुआ भी। 2-3 दिसंबर 1984 की रात मौत दबे पांव आयी और जाड़े की उस रात में नींद में सोये हजारों लोगों को मौत की नींद सुला गयी और लाखों को सारी जिंदगी बीमारियों से जूझने और तिल-तिल कर मरने को मजबूर कर गयी। कारखाने से रिसी कई टन मिथाइल आइसो साईनेट गैस ने हजारों जानें ले लीं।
अगर उस पत्रकार की बात को प्रबंधन ने गंभीरता से लिया होता और मरम्मत आदि की गयी होती तो शायद इतनी बड़ी त्रासदी न होती। कारखाना घनी आबादी के पास है इसलिए मौतें और ज्यादा हुईं। जिन लोगों ने गैस त्रासदी से मरे लोगों की बिखरी लाशों को देखा है, वे ताजिंदगी इस खौफनाक मंजर को भुला नहीं पायेंगे। इस त्रासदी पर एक पत्रकार की अंग्रेजी में लिखी पुस्तक की समीक्षा ’रविवार’ के लिए मैंने ही की थी। उस पुस्तक के कवर का चित्र इस त्रासदी की भयावहता और खौफ को उजागर करने के लिए काफी था। कवर में एक मृत शिशु का चित्र था , पथरायी आंखों वाला मृत शिशु का शव जिसे पिता के हाथ जमीन में दफना रहे हैं।
रोंगटे खड़े कर देनेवाला वही चित्र अब अखबारों में उन लोगों के बैनरों में दिख रहा है जो भोपाल गैस त्रासदी पर आये फैसले से नाखुश हैं और जगह-जगह इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। जिस किसी भी इनसान में तनिक भी इनसानियत या संवेदना है उसके दिल को हिला देने के लिए वह चित्र ही काफी है। पर पता नहीं सरकारों का दिल क्यों नहीं दहला। आखिर वक्त रहते वारेन एंडरसन के प्रत्यर्पण की गंभीर कोशिश क्यों नहीं की गयी? उसके बाद भी जो दोषी पाये गये उन्हें इतनी कम सजा क्यों दी गयी? होना तो यह चाहिए था कि इस गंभीर अपराध के लिए ऐसी सजा दी जाती जो आने वाले वक्त के लिए सबक होती और जिसके खौफ से कोई निरीह लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करने से डरता। आखिर ऐसा क्यों नहीं हुआ? ऐसे हजारों क्यों हैं जिनके कठघरे में हर वह शख्स, नौकरशाह, सत्ता के वे केंद्र खड़े हैं जिन्होंने इस हादसे से पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने में उदासीनता दिखायी और दोषियों के प्रति नरमी बरती।
आज राजनेता, सामाजिक संगठन और दूसरे कई संगठन भोपाल गैस त्रासदी पर आये निर्णय से असंतुष्ट हैं और चाहते हैं कि एक बार फिर नये सिरे न्यायिक प्रक्रिया चले और बिना किसी लागलपेट के सही-सही जांच और कार्रवाई हो। एंडरसन जिस कार से भोपाल से हवाई अड्डे तक गये वह एक कांग्रेसी नेता की बतायी जाती है। इस बारे में तरह-तरह की अफवाहें और खबरें हवा में हैं जिनमें से कुछ तो यहां तक संकेत करती हैं कि किसी बड़े नेता के इशारे पर एंडरसन को भारत से जाने की सुविधा दी गयी। इस बारे में और कीचड़ उछले, कुछ और दामन दागदार हों इससे पहले सब कुछ साफ होना चाहिए। अब तो कांग्रेसी नेताओं ने भी यह कहना शुरू कर दिया है कि आरोप-प्रत्यारोप बंद होना चाहिए और अगर कुछ सच्चाई है तो उसे सामने आना चाहिए। जिन्हें इसके बारे में सच्चाई पता है उन्हें भी मौन तोड़ सामने आना चाहिए क्योंकि कहा भी है-‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।’
ऐसा नहीं लगता कि देश में कोई भी व्यक्ति ऐसा होगा जो चाहेगा कि उसका इतिहास दागदार हो। जिसके पास जो भी जानकारी है उसे बाहर आना चाहिए, चाहे नौकरशाह हो या नेता अगर इस मामले को हलका करने, इसके दोषियों को बचाने की किसी ने भी कोशिश की है तो वह साफ होना चाहिए और उस पर नियमानुसार कार्रवाई भी होनी चाहिए। कारण,जो अभी हो रहा है, जिस तरह से आरोप-प्रत्यारोपों को दौर चल रहा है वह नागरिकों की शंकाओं को और बढ़ा रहा है। शंकाओं में जीता समाज कभी निश्चिंत या सुरक्षित नहीं हो सकता। उसे हमेशा यह आशंका रहेगी कि अगर न्याय दिलाने का यह हाल है तो भोपाल गैस त्रासदी जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति हो सकती है और उस पर न्याय पाने के लिए पीढ़ियों तक लोगों को इंतजार करना पड़ सकता है।
देश और देशवासियों के हित में यही है कि ऐसी घटनाओं की सही पड़ताल और उस पर उचित कार्रवाई हो। यह देश के नागरिकों की न सिर्फ आशा बल्कि अधिकार भी है। अब जब सरकार ने आरटीआई यानी सूचना के अधिकारी की सहूलियत राष्ट्र को दी है तो फिर ऐसी घटनाओं पर तैयार किये गये मामलों के बारे में भी यह जानकारी सामने आनी चाहिए कि यह मामला इतना लचर क्यों तैयार किया गया कि इसमें मामूली अपराध जैसी सजा मिली और मुख्य अभियुक्त तक न्याय के हाथ पहुंचे तक नहीं। यह सवाल है जो देश आज देश के कर्णधारों और इस मामले की न्यायिक प्रक्रिया से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े अधिकारियों से पूछना चाहता है। इसके जवाब देने के लिए वे बाध्य हैं क्योंकि इसके लिए उनमें से अनेक शपथबद्ध हैं।
लेखक राजेश त्रिपाठी कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं और तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इन दिनों हिंदी दैनिक सन्मार्ग में कार्यरत हैं।
साभार bhadas4media
Saturday, June 12, 2010
जेल विभाग बनाएगा रिकॉर्ड
जयपुर। राज्य का जेल विभाग रिकॉर्ड रचने की तैयारी में है। दो से तीन हफ्ते में ही राज्य में खुली जेलों की संख्या इतनी हो जाएगी जितनी भारत के किसी अन्य राज्य में भी नहीं होगी। गुजरात, दिल्ली, पंजाब समेत देश के तमाम राज्य राजस्थान से कोसों दूर हैं। इन तमाम राज्यों में सिर्फ 18 खुली जेल हैं। जबकि जल्द ही राजस्थान में खुली जेलों की संख्या 23 होने वाली है। इसके साथ ही राज्य के हर जिले में एक-एक खुली जेल खोलने की भी योजना बनाई जा रही है। राजस्थान में खुली जेलों की सुचारू व्यवस्था के बाद अब अन्य राज्यों के जेल प्रतिनिधि भी समय-समय पर राजस्थान का दौरा कर इस व्यवस्था के बारे में तमाम जानकारी जुटा रहे हैं। राजस्थान की तर्ज पर जल्द ही झारखंड और छत्तीसगढ सरकार भी खुली जेल खोलने की तैयारी में हैं। 47 साल पहले पहली मिली जानकारी के अनुसार राज्य की पहली जेल 1963 में जयपुर शहर में खोली गई थी। उस समय गर्वनर संपूर्णानंद ने खुली जेलें खोलने का प्रस्ताव रखा था और कुछ ही समय के बाद पहली जेल अपने स्वरूप में आ गई थी। उसके बाद एक-एक कर 13 खुली जेल राज्य भर में बनीं।10 और की तैयारी पहली जेल जयपुर शहर के सांगानेर इलाके में खोली गई। राज्य के अन्य जिलों में खुली जेलें बनीं। इस समय जयपुर शहर में सांगानेर और दुर्गापरा में दो, जोधपुर के मंडोर समेत उदयपुर, कोटा, भरतपुर, अलवर, जैतसर, बीचवाल, गंगानगर, हनुमानगढ और जालौर जिले में कुल मिलाकर 13 खुली जेल बनी हुई हैं। अब आने वाले कुछ दिनों में ही झुंझनूं, सीकर, भीलवाडा, धौलपुर, टोंक, अजमेर, बीकानेर, समेत तीन अन्य जिलों में खुली जेलों की पूरी तैयारी है। 13 जेलों में इतने कैदीजेल विभाग के अनुसार इस समय राज्य की 13 खुली जेलों में करीब 700 कैदी अपने परिवार के साथ रहते हैं। उनमें से ज्यादातर छह साल और उससे ज्यादा की सजा सेंट्रल जेलों में काट चुके हैं। जयपुर के सांगानेर और दुर्गापुरा में इस समय 350 से ज्यादा कैदी अपने परिवार के साथ रह रहे हैं। आने वाले दिनों में राज्य भर में बनी 10 अन्य खुली जेलों में करीब 150 से भी ज्यादा कैदी अपने परिवार के साथ रह सकेंगे। यूं जाते हैं खुली जेल मेंकैदी को पुलिस, कलेक्टर और जेल विभाग की रिपोर्ट के बाद ही भेजा जाता है। कैदी की उम्र 25 साल से ज्यादा लेकिन 60 साल से कम हो।सेंट्रल जेलों या अन्य जेलों में छह साल और आठ महीने की सजा काटने के बाद नियमों के अनुसार किसी भी कैदी को खुली जेलों में भेजा जा सकता है।आधी से ज्यादा राजस्थान मेंमिली जानकारी के अनुसार भारत के तमाम राज्यों में इस समय मात्र 31 खुली जेलें हैं। इनमें से 13 राजस्थान राज्य के शहरों में है। बाकि बची 18 जेलों में दो आंध्रप्रदेश, एक असम, दो गुजरात, एक हिमाचल, एक तमिलनाडु, एक पश्चिम बंगाल, एक कर्नाटक, दो केरल, एक उडीसा, एक पंजाब और एक उत्तराखंड में है। मिली जानकारी के अनुसार एशिया के देशों में सिर्फ चीन ही आने वाले दिनों में भारत को टक्कर दे सकता है। चीन में करीब एक दर्जन बंदी ओपन कैंप हैं। खुली जेलों के बारे में जल्द ही अधिकारियों के साथ बैठक होगी। दस नर्ई खुली जेलें खोलने का प्लान है। अब संख्या बढकर 23 हो जाएगी। ओमेंद्र भारद्वाज, डीजी (जेल), राजस्थान
साभार: राजस्थान पत्रिका
साभार: राजस्थान पत्रिका
Monday, June 7, 2010
फैसला टला
पेट्रोल डीजल के दाम पर फेसला फिलहाल टलगया है....दिल्ली मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार बैठक में ममता वकाज पंवार शामिल नहीं हुए। बैठक दाम बदने के लियें हो रही थी। अब फेसला अगली बैठक में लिया जाएगा।
सरकार बढ़ा सकती है पेट्रोल-डीजल के दाम
सरकार पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाने पर सोमवार को फैसला कर सकती है। इनकी कीमतें सरकारी नियंत्रण से मुक्त किए जाने पर पेट्रोल-डीजल 3.50 रुपए प्रति लीटर तक महंगा हो सकता है, वहीं रसोई गैस के दाम में 25 से 50 रुपए तक और केरोसिन की कीमतों में भी मामूली बढ़ोतरी की संभावना है।
वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्री समूह की सोमवार दोपहर बैठक होने जा रही है। इसमें किरीट पारिख समिति की सिफारिशों पर विचार किया जाएगा। समिति ने पेट्रो उत्पादों की कीमतें सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने और ईंधन पर सब्सिडी कम करने के लिए रसोई गैस व केरोसिन की कीमतों में भारी वृद्धि का सुझाव दिया है। मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा कि आयातित मूल्य पर सस्ता ईंधन बेच पाना संभव नहीं है।
यदि कीमतों में बढ़ोतरी नहीं होती है तो सरकार को पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस और केरोसिन को आयातित मूल्य से कम पर बेचने से होने वाले 72,300 करोड़ रुपए के घाटे की भरपाई का रास्ता तलाशना होगा। काफी हद तक संभावना है कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों को नियंत्रण मुक्त कर दिया जाए। ऐसा हुआ तो पेट्रोल 3.35 रुपए और डीजल 3.49 रुपए प्रति लीटर महंगा हो जाएगा।
डीजल देश में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाला ईंधन है, इसके दाम बढ़ने का असर महंगाई पर दिखाई देगा। इसी तरह, घरेलू रसोई गैस की कीमतों में भी 50 रुपए तक की बढ़ोतरी तय मानी जा रही है। सहयोगियों का दबाव पड़ने पर यह बढ़ोतरी कम हो सकती है।
वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्री समूह की सोमवार दोपहर बैठक होने जा रही है। इसमें किरीट पारिख समिति की सिफारिशों पर विचार किया जाएगा। समिति ने पेट्रो उत्पादों की कीमतें सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने और ईंधन पर सब्सिडी कम करने के लिए रसोई गैस व केरोसिन की कीमतों में भारी वृद्धि का सुझाव दिया है। मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा कि आयातित मूल्य पर सस्ता ईंधन बेच पाना संभव नहीं है।
यदि कीमतों में बढ़ोतरी नहीं होती है तो सरकार को पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस और केरोसिन को आयातित मूल्य से कम पर बेचने से होने वाले 72,300 करोड़ रुपए के घाटे की भरपाई का रास्ता तलाशना होगा। काफी हद तक संभावना है कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों को नियंत्रण मुक्त कर दिया जाए। ऐसा हुआ तो पेट्रोल 3.35 रुपए और डीजल 3.49 रुपए प्रति लीटर महंगा हो जाएगा।
डीजल देश में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाला ईंधन है, इसके दाम बढ़ने का असर महंगाई पर दिखाई देगा। इसी तरह, घरेलू रसोई गैस की कीमतों में भी 50 रुपए तक की बढ़ोतरी तय मानी जा रही है। सहयोगियों का दबाव पड़ने पर यह बढ़ोतरी कम हो सकती है।
भोपाल के हत्यारों को सजा, जुर्माना लगाया
भोपाल. भोपाल गैस त्रासदी मामले में चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट मोहन पी. तिवारी ने यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के तत्कालीन अध्यक्ष केशव महेन्द्रा समेत 7 आरोपियों को आज दो-दो वर्ष के कारावास और अर्थदंड की सजा सुनाई। कोर्ट ने केशव महेन्द्र के अलावा यूसीआईएल के तत्कालीन प्रबंध निदेशक विजय गोखले, किशोर कामदार, जे मुकंद, एस पी चौधरी,के बी शेट्टी और कारखाने के सुपरवाइजर एस आई कुरैशी को दो-दो वर्ष के कारावास की सजा सुनाई है। आठवें आरोपी यूसीआईएल पर पांच लाख रूपए का जुर्माना (धारा 304ए के तहत) लगाया गया है।
कोर्ट ने सभी सातों आरोपियों को धारा 304 ए के तहत एक-एक लाख रूपए का जुर्माना भी सुनाया है। इसके अलावा धारा 338 के तहत दो-दो साल का कारावास और एक-एक हजार रूपए का अर्थदंड़ सुनाया। कोर्ट के बाहर तनाव ही तनावसुबह से ही भोपाल जिला कोर्ट में लोगों की भीड़ जमा होनी शुरु हो गई थी, जिसे रोकने के लिए भारी मात्रा में पुलिस बल तैनात किया गया था, साथ में पूरे इलाके में धारा 144 लगा दी गई थी। मीडिया व पीड़ित परिवार को कोर्ट के अंदर जाने की इजाजत नहीं थी। जिसके कारण कई बार मीडिया, पीड़ित और पुलिस के बीच झड़पें भी हुईं, जिसके चलते कोर्ट में तनाव का माहौल बन गया था। * ‘हमारी कानूनी व्यवस्था पर सवाल है यह फैसला’सीबीआई ने 12 को बनाया है आरोपीसीबीआई ने भोपाल गैस कांड मामले में यूनियन कार्बाइड कॉपरेरेशन के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन समेत 12 को आरोपी बनाया है। एंडरसन फरार है। दुनिया की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी से संबंधित इस मामले में सुनवाई 23 साल चली और इसी साल13 मई को पूरी हो गई थी।मौत का खौफनाक मंजर झेल चुके फरियादी शहर ने इंसाफ के लिए 25 साल इंतजार में गुजार दिए। इसके जख्म पर समय की परत चढ़ चुकी है, लेकिन घाव अंदर कहीं जिंदा हैं। उदासीन और संवेदनहीन राजनीति झेलने वाले लोगों की निगाहें अदालत पर टिकी हैं। त्रासदी में 15 हजार से ज्यादा जान गंवा चुके हैं।2-3 दिसंबर 1984 की रात यूनियन कार्बाइड फैक्टरी से मिक नामक गैस के रिसाव ने भोपाल में मौत का तांडव मचा दिया था। घटना की रात हनुमानगंज थाने में दर्ज एफआईआर में कार्बाइड फैक्टरी में हुई लापरवाही के मामले में पांच लोगों को आरोपी बनाया गया था। हादसे के तीन साल बाद ही केंद्र सरकार ने राज्य सरकार की सहमति से यह मामला सीबीआई को सौंप दिया था। सीबीआई ने 30 नवंबर 1987 को वारेन एंडरसन सहित 12 आरोपियों के खिलाफ चालान पेश किया। वर्ष 1989 में पीड़ितों ने मुआवजे के लिए मामले अदालत में लगाए। बाद में इनकी ओर से केंद्र सरकार ने मुआवजे के लिए मुकदमा अमेरिका की कोर्ट में लगाया।वहां यूनियन कार्बाइड कापरेरेशन की ओर से आपत्ति पेश की गई कि यह मामला अमेरिका कोर्ट के क्षेत्राधिकार में नहीं आता है। केंद्र सरकार ने मामले वापस लेकर भोपाल में सिविल सूट लगाया। तत्कालीन जिला न्यायाधीश एम डब्ल्यू देव ने अंतरिम मुआवजे के तौर पर 710 करोड़ रुपए के भुगतान का आदेश दिया। कार्बाइड की ओर से इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई, जहां से राशि कुछ कम हो गई। सुप्रीम कोर्ट में अंतरिम आदेश पर सुनवाई के दौरान 14 फरवरी 1989 को दोनों पक्षों के बीच समझौता हो गया। समझौते में तय हुआ कि यूनियन कार्बाइड कापरेरेशन अमेरिका और यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड समझौता राशि का भुगतान करेगी और इसके बाद गैस त्रासदी से जुड़े सभी सिविल और आपराधिक प्रकरण खत्म हो जाएंगे। कार्बाइड की ओर से समझौता राशि का भुगतान कर दिया गया और सभी केस खत्म हो गए। रिव्यू पिटीशन : इसके बाद कुछ संगठनों की ओर से सुप्रीम कोर्ट में एक रिव्यू पिटीशन लगाकर मांग की गई कि आपराधिक प्रकरण खत्म नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने 3 अक्टूबर 1991 को कहा कि आपराधिक प्रकरण चलेगा। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद राजधानी के तत्कालीन नवम अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश वजाहत अली शाह की कोर्ट ने आरोप तय किए। आरोपियों ने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि आरोपियों के खिलाफ 304 ए में मामला चलाया जाए। सही मायनों में गैस त्रासदी मामले की सुनवाई वर्ष 1996 में ही शुरू हुई। आज भी फैक्टरी में है मौत का सामान:भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार कहते है कि प्रदेश सरकार द्वारा लीज डीड निरस्त होने के बाद 19 जुलाई 1998 को कार्बाइड प्रबंधन भोपाल स्थित 67 एकड़ में फैक्टरी में फैले हुए 18 हजार मैट्रिक टन टाकसिक सिल्ट और अन्य केमिकल छोड़कर चला गया। घटना के तीन साल पहले 25 दिसंबर 1981 को कार्बाइड फैक्टरी में काम करने वाले अशरफ लाला नाम के एक फिटर की फास्जीन गैस रिसाव के कारण मौत हो गई थी। 1982 में वेस्ट वर्जीनिया से एक टीम आई थी, जिसने कार्बाइड फैक्टरी का मुआयना कर 32 खामियां पाई थी। एमआईसी प्लांट, जहां से गैस का रिसाव हुआ था, वहां 16 खमियां मिली थीं।कितनी जानें गईंसुप्रीम कोर्ट में मुआवजा राशि लेते समय जो समझौता किया गया, उसके मुताबिक मृतक तीन हजार और प्रभावित एक लाख दो हजार बताई गई। इन्हीं आंकड़ों को आधार मानते हुए 470 मिलियन डालर यानी 715 करोड़ रुपए में समझौता हुआ। इधर 2004 में गैस वेलफेयर कमिश्नर ने जिन गैस पीड़ितों के मुआवजा मामलों का निराकरण कर राशि वितरित की, उसमें मृतक 15 हजार 274 और प्रभावित 5 लाख 74 हजार तय हुआ। गैस रिसने के पहले हफ्ते में आए सरकारी आंकड़ों में मरने वालों का आंकड़ा 260 बताया गया, जबकि गैर सरकारी आंकड़ों में यह आंकड़ा आठ हजार पहुंच गया था। खास बातें23 साल तक चली सुनवाई2-3 दिसंबर, 1984 की मध्यरात्रि को मचा था शहर में मौत का तांडवतीन दिन बाद केंद्र सरकार ने मामला सीबीआई को सौंपा। 30 नवंबर 1987 को चालान पेश हुआ। एंडरसन समेत कुल 12 आरोपी।भोपाल पहुंचे केशव महेंद्रा समेत अन्य आरोपीगैस त्रासदी मामले के आरोपी केशव महेंद्रा और विजय गोखले रविवार देर शाम मुंबई से भोपाल पहुंचे। आरोपी एसपी चौधरी, किशोर कामदार रविवार सुबह ही आ गए थे। श्री चौधरी मित्र के यहां मालवीय नगर में और कामदार एक होटल में रुके हैं। इनके अलावा जे मुकुंद, केवी शेट्टी भोपाल पहुंच गए है। हालांकि एसआई कुरैशी के बारे में फिलहाल कोई जानकारी नहीं मिली है।
कोर्ट ने सभी सातों आरोपियों को धारा 304 ए के तहत एक-एक लाख रूपए का जुर्माना भी सुनाया है। इसके अलावा धारा 338 के तहत दो-दो साल का कारावास और एक-एक हजार रूपए का अर्थदंड़ सुनाया। कोर्ट के बाहर तनाव ही तनावसुबह से ही भोपाल जिला कोर्ट में लोगों की भीड़ जमा होनी शुरु हो गई थी, जिसे रोकने के लिए भारी मात्रा में पुलिस बल तैनात किया गया था, साथ में पूरे इलाके में धारा 144 लगा दी गई थी। मीडिया व पीड़ित परिवार को कोर्ट के अंदर जाने की इजाजत नहीं थी। जिसके कारण कई बार मीडिया, पीड़ित और पुलिस के बीच झड़पें भी हुईं, जिसके चलते कोर्ट में तनाव का माहौल बन गया था। * ‘हमारी कानूनी व्यवस्था पर सवाल है यह फैसला’सीबीआई ने 12 को बनाया है आरोपीसीबीआई ने भोपाल गैस कांड मामले में यूनियन कार्बाइड कॉपरेरेशन के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन समेत 12 को आरोपी बनाया है। एंडरसन फरार है। दुनिया की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी से संबंधित इस मामले में सुनवाई 23 साल चली और इसी साल13 मई को पूरी हो गई थी।मौत का खौफनाक मंजर झेल चुके फरियादी शहर ने इंसाफ के लिए 25 साल इंतजार में गुजार दिए। इसके जख्म पर समय की परत चढ़ चुकी है, लेकिन घाव अंदर कहीं जिंदा हैं। उदासीन और संवेदनहीन राजनीति झेलने वाले लोगों की निगाहें अदालत पर टिकी हैं। त्रासदी में 15 हजार से ज्यादा जान गंवा चुके हैं।2-3 दिसंबर 1984 की रात यूनियन कार्बाइड फैक्टरी से मिक नामक गैस के रिसाव ने भोपाल में मौत का तांडव मचा दिया था। घटना की रात हनुमानगंज थाने में दर्ज एफआईआर में कार्बाइड फैक्टरी में हुई लापरवाही के मामले में पांच लोगों को आरोपी बनाया गया था। हादसे के तीन साल बाद ही केंद्र सरकार ने राज्य सरकार की सहमति से यह मामला सीबीआई को सौंप दिया था। सीबीआई ने 30 नवंबर 1987 को वारेन एंडरसन सहित 12 आरोपियों के खिलाफ चालान पेश किया। वर्ष 1989 में पीड़ितों ने मुआवजे के लिए मामले अदालत में लगाए। बाद में इनकी ओर से केंद्र सरकार ने मुआवजे के लिए मुकदमा अमेरिका की कोर्ट में लगाया।वहां यूनियन कार्बाइड कापरेरेशन की ओर से आपत्ति पेश की गई कि यह मामला अमेरिका कोर्ट के क्षेत्राधिकार में नहीं आता है। केंद्र सरकार ने मामले वापस लेकर भोपाल में सिविल सूट लगाया। तत्कालीन जिला न्यायाधीश एम डब्ल्यू देव ने अंतरिम मुआवजे के तौर पर 710 करोड़ रुपए के भुगतान का आदेश दिया। कार्बाइड की ओर से इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई, जहां से राशि कुछ कम हो गई। सुप्रीम कोर्ट में अंतरिम आदेश पर सुनवाई के दौरान 14 फरवरी 1989 को दोनों पक्षों के बीच समझौता हो गया। समझौते में तय हुआ कि यूनियन कार्बाइड कापरेरेशन अमेरिका और यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड समझौता राशि का भुगतान करेगी और इसके बाद गैस त्रासदी से जुड़े सभी सिविल और आपराधिक प्रकरण खत्म हो जाएंगे। कार्बाइड की ओर से समझौता राशि का भुगतान कर दिया गया और सभी केस खत्म हो गए। रिव्यू पिटीशन : इसके बाद कुछ संगठनों की ओर से सुप्रीम कोर्ट में एक रिव्यू पिटीशन लगाकर मांग की गई कि आपराधिक प्रकरण खत्म नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने 3 अक्टूबर 1991 को कहा कि आपराधिक प्रकरण चलेगा। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद राजधानी के तत्कालीन नवम अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश वजाहत अली शाह की कोर्ट ने आरोप तय किए। आरोपियों ने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि आरोपियों के खिलाफ 304 ए में मामला चलाया जाए। सही मायनों में गैस त्रासदी मामले की सुनवाई वर्ष 1996 में ही शुरू हुई। आज भी फैक्टरी में है मौत का सामान:भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार कहते है कि प्रदेश सरकार द्वारा लीज डीड निरस्त होने के बाद 19 जुलाई 1998 को कार्बाइड प्रबंधन भोपाल स्थित 67 एकड़ में फैक्टरी में फैले हुए 18 हजार मैट्रिक टन टाकसिक सिल्ट और अन्य केमिकल छोड़कर चला गया। घटना के तीन साल पहले 25 दिसंबर 1981 को कार्बाइड फैक्टरी में काम करने वाले अशरफ लाला नाम के एक फिटर की फास्जीन गैस रिसाव के कारण मौत हो गई थी। 1982 में वेस्ट वर्जीनिया से एक टीम आई थी, जिसने कार्बाइड फैक्टरी का मुआयना कर 32 खामियां पाई थी। एमआईसी प्लांट, जहां से गैस का रिसाव हुआ था, वहां 16 खमियां मिली थीं।कितनी जानें गईंसुप्रीम कोर्ट में मुआवजा राशि लेते समय जो समझौता किया गया, उसके मुताबिक मृतक तीन हजार और प्रभावित एक लाख दो हजार बताई गई। इन्हीं आंकड़ों को आधार मानते हुए 470 मिलियन डालर यानी 715 करोड़ रुपए में समझौता हुआ। इधर 2004 में गैस वेलफेयर कमिश्नर ने जिन गैस पीड़ितों के मुआवजा मामलों का निराकरण कर राशि वितरित की, उसमें मृतक 15 हजार 274 और प्रभावित 5 लाख 74 हजार तय हुआ। गैस रिसने के पहले हफ्ते में आए सरकारी आंकड़ों में मरने वालों का आंकड़ा 260 बताया गया, जबकि गैर सरकारी आंकड़ों में यह आंकड़ा आठ हजार पहुंच गया था। खास बातें23 साल तक चली सुनवाई2-3 दिसंबर, 1984 की मध्यरात्रि को मचा था शहर में मौत का तांडवतीन दिन बाद केंद्र सरकार ने मामला सीबीआई को सौंपा। 30 नवंबर 1987 को चालान पेश हुआ। एंडरसन समेत कुल 12 आरोपी।भोपाल पहुंचे केशव महेंद्रा समेत अन्य आरोपीगैस त्रासदी मामले के आरोपी केशव महेंद्रा और विजय गोखले रविवार देर शाम मुंबई से भोपाल पहुंचे। आरोपी एसपी चौधरी, किशोर कामदार रविवार सुबह ही आ गए थे। श्री चौधरी मित्र के यहां मालवीय नगर में और कामदार एक होटल में रुके हैं। इनके अलावा जे मुकुंद, केवी शेट्टी भोपाल पहुंच गए है। हालांकि एसआई कुरैशी के बारे में फिलहाल कोई जानकारी नहीं मिली है।
Friday, June 4, 2010
दो अखबारों की गर्दन मरोड़ दी
एक देश का, दूसरा विदेश का : एक ने गलत कैप्शन छापा, दूसरे ने सरकार की पोल खोली : वजह चाहें जो भी हो, लेकिन भुगतना पड़ा है दो अखबारों और इनमें कार्यरत कर्मियों को. जम्मू-कश्मीर के एक अखबार को इसलिए बंद करा दिया गया क्योंकि सोनिया गांधी की तस्वीर के नीचे घटिया किस्म का कैप्शन लगा दिया गया था. सोनिया की यह तस्वीर जम्मू-कश्मीर के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सैफुद्दीन सोज के साथ 30 मई को प्रकाशित हुई. इसी तस्वीर पर आपत्तिजनक-अपमानजनक कैप्शन लगाकर अखबार पब्लिश करा दिया गया था.
यह अखबार उर्दू का है. नाम है 'अलसाफा'. श्रीनगर से प्रकाशित होने वाले इस अखबार के आफिस को पुलिस ने सील कर दिया. इस अखबार के संपादक अशरफ शब्बान को 23 जून तक की मोहलत दी गई है. अगर वे 23 जून तक श्रीनगर के जिला मजिस्ट्रेट के सामने उपस्थित होकर अपना पक्ष नहीं रखते हैं तो उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है. श्रीनगर के जिला मजिस्ट्रेट का कहना है कि अभद्र टिप्पणी के कारण अराजकता फैलने की आशंका थी, इस कारण प्रशासन को अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए यह कदम उठाना पड़ा. कश्मीर के कई पत्रकार संगठनों ने सरकार के इस फैसले का स्वागत किया है जबकि कुछ का कहना है कि अखबार बंद करा देना उचित कदम नहीं है. अखबार प्रबंधन के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जा सकती थी लेकिन अखबार बंद कराने से लोकतांत्रिक परंपराओं की हत्या की गई है. अखबार बंद कर दिए जाने जैसी कार्रवाइयों के कारण भविष्य में लोग साहस के साथ सच बोलने से डरेंगे.
दूसरी खबर ढाका से है. बांग्लादेश की मुख्य विपक्षी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के मुखपत्र को सत्ताधारी पार्टी के इशारे पर बंद करा दिया गया है. पुलिस ने मुखपत्र 'अमार देश' के ढाका स्थित दफ्तर को सील कर अखबार के संपादक एम. रहमान को गिरफ्तार कर लिया है. इससे पहले बीएनपी के मुखपत्र के प्रकाशन को सरकार द्वारा अवैध घोषित कर दिया गया था. खालिदा जिया की पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के मुखपत्र के संपादक को गिरफ्तार करने में पुलिस को अखबार में कार्यरत कर्मियों के पुरजोर विरोध को झेलना पड़ा. बीएनपी ने सरकारी विभागों और पुलिस की निंदी की है. पार्टी का आरोप है कि सरकारी लोग कानून के तहत नहीं बल्कि सरकार व सत्ताधारी पार्टी के निजी एजेंट के तौर पर काम कर रहे हैं और बिना किसी कानूनी दस्तावेज के अखबार बंद कराने जैसे कारनामे अंजाम दे रहे हैं. बताया जाता है कि 'अमार देश' अखबार में सरकार विरोधी खबरें लगातार छप रही थीं जिससे पुलिस-प्रशासन की नजरें इस पर टेढ़ी थी और सत्ता में बैठे लोगों की हरी झंडी मिलते ही इसे बंद करा दिया गया.
यह अखबार उर्दू का है. नाम है 'अलसाफा'. श्रीनगर से प्रकाशित होने वाले इस अखबार के आफिस को पुलिस ने सील कर दिया. इस अखबार के संपादक अशरफ शब्बान को 23 जून तक की मोहलत दी गई है. अगर वे 23 जून तक श्रीनगर के जिला मजिस्ट्रेट के सामने उपस्थित होकर अपना पक्ष नहीं रखते हैं तो उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है. श्रीनगर के जिला मजिस्ट्रेट का कहना है कि अभद्र टिप्पणी के कारण अराजकता फैलने की आशंका थी, इस कारण प्रशासन को अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए यह कदम उठाना पड़ा. कश्मीर के कई पत्रकार संगठनों ने सरकार के इस फैसले का स्वागत किया है जबकि कुछ का कहना है कि अखबार बंद करा देना उचित कदम नहीं है. अखबार प्रबंधन के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जा सकती थी लेकिन अखबार बंद कराने से लोकतांत्रिक परंपराओं की हत्या की गई है. अखबार बंद कर दिए जाने जैसी कार्रवाइयों के कारण भविष्य में लोग साहस के साथ सच बोलने से डरेंगे.
दूसरी खबर ढाका से है. बांग्लादेश की मुख्य विपक्षी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के मुखपत्र को सत्ताधारी पार्टी के इशारे पर बंद करा दिया गया है. पुलिस ने मुखपत्र 'अमार देश' के ढाका स्थित दफ्तर को सील कर अखबार के संपादक एम. रहमान को गिरफ्तार कर लिया है. इससे पहले बीएनपी के मुखपत्र के प्रकाशन को सरकार द्वारा अवैध घोषित कर दिया गया था. खालिदा जिया की पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के मुखपत्र के संपादक को गिरफ्तार करने में पुलिस को अखबार में कार्यरत कर्मियों के पुरजोर विरोध को झेलना पड़ा. बीएनपी ने सरकारी विभागों और पुलिस की निंदी की है. पार्टी का आरोप है कि सरकारी लोग कानून के तहत नहीं बल्कि सरकार व सत्ताधारी पार्टी के निजी एजेंट के तौर पर काम कर रहे हैं और बिना किसी कानूनी दस्तावेज के अखबार बंद कराने जैसे कारनामे अंजाम दे रहे हैं. बताया जाता है कि 'अमार देश' अखबार में सरकार विरोधी खबरें लगातार छप रही थीं जिससे पुलिस-प्रशासन की नजरें इस पर टेढ़ी थी और सत्ता में बैठे लोगों की हरी झंडी मिलते ही इसे बंद करा दिया गया.
Thursday, June 3, 2010
ग्वालियर में अखबारों के बीच खूनी जंग
'पत्रिका' उठा रहे हाकरों-एजेंटों पर हमला, पांच घायल : अखबार लूटा, फाड़ा व हाकरों-एजेंटों को पीटा : ग्वालियर से खबर है कि यहां अखबारों के बीच सरकुलेशन की लड़ाई खूनी शक्ल अख्तियार कर रही है. परसों रात 'पत्रिका' अखबार को लूटा-फाड़ा गया और एंजेंटों-हाकरों की पिटाई की गई. कहा जा रहा है कि इस घटना के पीछे भास्कर के लोग हैं. ग्वालियर में दो बड़े सेंटर हैं जहां से अखबार एजेंट व हाकरों के बीच वितरित किया जाता है. एक है संजय कांप्लेक्स और दूसरा है रेलवे स्टेशन.
सूत्रों के मुताबिक रेलवे स्टेशन वाले सेंटर पर भास्कर के गुंडों ने पत्रिका ले रहे एजेंट व हाकरों पर धावा बोल दिया. इनसे अखबार लूट लिए और मारपीट की. पांच लोगों के घायल होने की सूचना है. बताया जा रहा है कि घायलों ने नामजद एफआईआर कराया है पर अभी तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है. फिलहाल, उस घटना के बाद से रात में पुलिस की तैनाती सेंटरों पर कर दी गई है. भास्कर और पत्रिका के बीच की खूनी जंग से मीडिया जगत में हलचल है. पत्रिका की तरफ से सरकुलेशन के ढेर सारे वरिष्ठों ने अगले दिन सेंटरों का दौरा किया और हाकरों व एजेंटों को ढांढस बंधाया.
एक अखबार से जुड़े वरिष्ठ पदाधिकारी का कहना है कि भास्कर के टैबलायड अखबार डीबी स्टार की तरफ से करीब 30 लोगों के गुट ने अचानक हमला बोल दिया था और पत्रिका उठाने वाले हाकरों-एजेंटों की पिटाई कर डाली थी. हमले की इस घटना को पत्रिका अखबार ने अगले दिन प्रमुखता से प्रकाशित किया. ताजी सूचना के मुताबिक दोनों अखबारों की ओर से ढेर सारे लोगों के गुट दल-बल के साथ रात में सेंटरों पर विचरण कर रहे हैं. पुलिस की तगड़ी व्यवस्था की गई है ताकि किसी भी अनहोनी को टाला जा सके.
पत्रिका के प्रसार विभाग के कई दिग्गज ग्वालियर पहुंच गए हैं और भास्कर की बेलगाम टीम पर लगाम लगाने की कवायद में जुट गए हैं. पत्रिका से जुड़े लोगों का कहना है कि सरकुलेशन गिरते देख व पत्रिका की सफलता से डरे भास्कर के लोगों ने फ्रस्ट्रेशन में यह सब किया है.
सूत्रों के मुताबिक रेलवे स्टेशन वाले सेंटर पर भास्कर के गुंडों ने पत्रिका ले रहे एजेंट व हाकरों पर धावा बोल दिया. इनसे अखबार लूट लिए और मारपीट की. पांच लोगों के घायल होने की सूचना है. बताया जा रहा है कि घायलों ने नामजद एफआईआर कराया है पर अभी तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है. फिलहाल, उस घटना के बाद से रात में पुलिस की तैनाती सेंटरों पर कर दी गई है. भास्कर और पत्रिका के बीच की खूनी जंग से मीडिया जगत में हलचल है. पत्रिका की तरफ से सरकुलेशन के ढेर सारे वरिष्ठों ने अगले दिन सेंटरों का दौरा किया और हाकरों व एजेंटों को ढांढस बंधाया.
एक अखबार से जुड़े वरिष्ठ पदाधिकारी का कहना है कि भास्कर के टैबलायड अखबार डीबी स्टार की तरफ से करीब 30 लोगों के गुट ने अचानक हमला बोल दिया था और पत्रिका उठाने वाले हाकरों-एजेंटों की पिटाई कर डाली थी. हमले की इस घटना को पत्रिका अखबार ने अगले दिन प्रमुखता से प्रकाशित किया. ताजी सूचना के मुताबिक दोनों अखबारों की ओर से ढेर सारे लोगों के गुट दल-बल के साथ रात में सेंटरों पर विचरण कर रहे हैं. पुलिस की तगड़ी व्यवस्था की गई है ताकि किसी भी अनहोनी को टाला जा सके.
पत्रिका के प्रसार विभाग के कई दिग्गज ग्वालियर पहुंच गए हैं और भास्कर की बेलगाम टीम पर लगाम लगाने की कवायद में जुट गए हैं. पत्रिका से जुड़े लोगों का कहना है कि सरकुलेशन गिरते देख व पत्रिका की सफलता से डरे भास्कर के लोगों ने फ्रस्ट्रेशन में यह सब किया है.
Wednesday, June 2, 2010
झुग्गी नं. 208 से निकला आईएएस
दिल्ली की झुग्गी झोपडी में रहने वाले दिहाडी मजदूर के बेटे हरीश चंदर ने पहले प्रयास में तय किया आईएएस का सफर। यह कहानी है एक जिद की, यह दास्तां है एक जुनून की, यह कोशिश है सपने देखने और उन्हें पूरा करने की। यह मिसाल है उस जज्बे की, जिसमें झुग्गी बस्ती में रहते हुए एक दिहाडी मजदूर का बेटा आईएएस अफसर बन गया है। पिता एक दिहाडी मजदूर, मां दूसरों के घर-घर जाकर काम करने वाली बाई। कोई और होता तो शायद कभी का बिखर गया होता, लेकिन दिल्ली के 21 वष्ाीüय हरीश चंदर ने इन्हीं हालात में रहकर वह करिश्मा कर दिखाया, जो संघर्षशील युवाओं के लिए मिसाल बन गया। दिल्ली के ओट्रम लेन, किंग्सवे कैंप की झुग्गी नंबर 208 में रहने वाले हरीश ने पहले ही प्रयास में आईएएस परीक्षा में 309वीं रैंक हासिल की है। संघर्ष की सफलता की कहानी, हरीश चंदर की जुबानी। मेरा बचपन: चने खाकर गुजारी रातेंमैंने संघर्ष की ऎसी काली कोठरी में जन्म लिया, जहां हर चीज के लिए जद्दोजहद करनी पडती थी। जब से मैंने होश संभाला खुद को किसी न किसी लाइन में ही पाया। कभी पीने के पानी की लाइन में तो कभी राशन की लाइन में। यहां तक कि शौच जाने के लिए भी लाइन में लगना पडता था। झुग्गी में माहौल ऎसा होता था कि पढाई कि बात तो दूर सुबह-शाम का खाना मिल जाए, तो मुकद्दर की बात मानी जाती थी। बाबा (पापा) दिहाडी मजूदर थे। कभी कोई काम मिल जाए तो रोटी नसीब हो जाती थी, नहीं तो घर पर रखे चने खाकर सोने की हमें सभी को आदत थी। झुग्गी में जहां पीने को पानी मयस्सर नहीं होता वहां लाइट की सोचना भी बेमानी है। झोपडी की हालत ऎसी थी कि गर्मी में सूरज, बरसात में पानी और सर्दी में ठंड का सीधा सामना हुआ करता था।मेरी हिम्मत: मां और बाबामेरे मां-बाबा पूरी तरह निरक्षर हैं, लेकिन उन्होंने मुझे और मेरे तीन भाई-बहनों को पढाने की हरसंभव कोशिश की। लेकिन जिस घर में दो जून का खाना जुटाने के लिए भी मशक्कत होती हो, वहां पढाई कहां तक चल पाती। घर के हालात देख मैं एक किराने की दुकान पर काम करने लगा। लेकिन इसका असर मेरी पढाई पर पडा। दसवीं में मैं फेल होते-होते बचा। उस दौरान एक बार तो मैंने हमेशा के लिए पढाई छोडने की सोच ली। लेकिन मेरी मां, जिन्हें खुद अक्षरों का ज्ञान नहीं था, वो जानती थीं के ये अक्षर ही उसके बेटे का भाग्य बदल सकते हैं। मां ने मुझे पढाने के लिए दुकान से हटाया और खुद दूसरों के घरों में झाडू-पोंछा करने लगी। उनके कमाए पैसों को पढाई में खर्च करने में भी मुझे एक अजीब सा जोश आता था। मैं एक-एक मिनट को भी इस्तेमाल करता था। मेरा मानना है कि आपको अगर किसी काम में पूरी तरह सफल होना है तो आपको उसके लिए पूरी तरह समर्पित होना पडेगा। एक प्रतिशत लापरवाही आपकी पूरी जिंदगी के लिए नुकसानदायक साबित हो सकती है। मेरे प्रेरक : मां, गोविंद और धर्मेद्र सरयूं तो मां मेरी सबसे बडी प्रेरणा रही है, लेकिन मैं जिस एक शख्स से सबसे ज्यादा प्रभावित हूं और जिसने मुझे झकझोर कर रख दिया, वह है गोविंद जायसवाल। वही गोविंद जिसके पिता रिक्शा चलाते थे और वह 2007 में आईएएस बना। एक अखबार में गोविंद का इंटरव्यू पढने के बाद मुझे लगा कि अगर वह आईएएस बन सकता है तो मैं क्यूं नहीं मैं बारहवीं तक यह भी नहीं जानता था कि आईएएस होते क्या हैं लेकिन हिंदू कॉलेज से बीए करने के दौरान मित्रों के जरिए जब मुझे इस सेवा के बारे में पता चला, उसी दौरान मैंने आईएएस बनने का मानस बना लिया था। परीक्षा के दौरान राजनीतिक विज्ञान और दर्शन शास्त्र मेरे मुख्य विष्ाय थे। विष्ाय चयन के बाद दिल्ली स्थित पतंजली संस्थान के धर्मेद्र सर ने मेरा मार्गदर्शन किया। उनकी दर्शन शास्त्र पर जबरदस्त पकड है। उनका पढाने का तरीका ही कुछ ऎसा है कि सारे कॉन्सेप्ट खुद ब खुद क्लीयर होते चले जाते हैं। उनका मार्गदर्शन मुझे नहीं मिला होता तो शायद मैं यहां तक नहीं पहुंच पाता। मेरा जुनून : हार की सोच भी दिमाग में न आएमैंने जिंदगी के हर मोड पर संघर्ष देखा है, लेकिन कभी परिस्थतियों से हार स्वीकार नहीं की। जब मां ने किराने की दुकान से हटा दिया, उसके बाद कई सालों तक मैंने बच्चों को टयूशन पढाया और खुद भी पढता रहा। इस दौरान न जाने कितने लोगों की उपेक्षा झेली और कितनी ही मुसीबतों का सामना किया। लोग मुझे पास बिठाना भी पसंद नहीं करते थे, क्योंकि मैं झुग्गी से था। लोग यह मानते हैं कि झुग्गियों से केवल अपराधी ही निकलते हैं। मेरी कोशिश ने यह साबित कर दिया कि झुग्गी से अफसर भी निकलते हैं। लोगों ने भले ही मुझे कमजोर माना लेकिन मैं खुद को बेस्ट मानता था। मेरा मानना है कि जब भी खुद पर संदेह हो तो अपने से नीचे वालों को देख लो, हिम्मत खुद ब खुद आ जाएगी। सही बात यह भी है कि यह मेरा पहला ही नहीं आखिरी प्रयास था। अगर मैं इस प्रयास में असफल हो जाता तो मेरे मां-बाबा के पास इतना पैसा नहीं था कि वे मुझे दोबारा तैयारी करवाते। मेरी खुशी : बाबूजी का सम्मानमेरी जिंदगी में सबसे बडा खुशी का पल वह था, जब हर दिन की तरह बाबा मजदूरी करके घर लौटे और उन्हें पता चला कि उनका बेटा आईएएस परीक्षा में पास हो गया है। मुझे फख्र है कि मुझे ऎसे मां-बाप मिले, जिन्होंने हमें कामयाबी दिलाने के लिया अपना सबकुछ होम कर दिया। मुझे आज यह बताते हुए फख्र हो रहा है कि मेरा पता ओट्रम लेन, किंग्सवे कैंप, झुग्गी नंबर 208 है। उस दिन जब टीवी चैनल वाले, पत्रकार बाबा की बाइट ले रहे थे तो उनकी आंसू भरी मुस्कुराहट के सामने मानों मेरी सारी तकलीफें और मेहनत बहुत बौनी हो गई थीं। मेरा संदेश : विल पावर को कमजोर मत होने दोमेरा मानना है कि एक कामयाब और एक निराश व्यक्ति में ज्ञान का फर्क नहीं होता, फर्क होता है तो सिर्फ इच्छाशक्ति का। हालात कितने ही बुरे हों, घनघोर गरीबी हो। बावजूद इसके आपकी विल पावर मजबूत हो, आप पर हर हाल में कामयाब होने की सनक सवार हो, तो दुनिया की कोई ताकत आपको सफल होने से रोक नहीं सकती। वैसे भी जब हम कठिन कार्यो को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं और उन्हें खुशी और उत्साह से करते हैं तो चमत्कार होते हैं। यूं तो हताशा-निराशा कभी मुझपर हावी नहीं हुई, लेकिन फिर भी कभी परेशान होता था तो नीरज की वो पंक्तियां मुझे हौसला देती हैं, 'मैं तूफानों में चलने का आदी हूं.. '
Tuesday, June 1, 2010
ढूंढते रह जाओगे
जयपुर। अगर आपको वर्ष 1967 के किसी छात्र का रिकॉर्ड चाहिए या उस वर्ष की कोई अंकतालिका बनवानी है तो इस रिकॉर्ड को ढूंढने की मशक्कत आपको खुद ही करनी होगी। किस्मत अच्छी हुई तो यह रिकॉर्ड आपको पांच-छह महीने में मिल ही जाएगा। खुद ही रिकॉर्ड ढूंढने की जद्दोजहद इसलिए करनी होगी क्योंकि राजस्थान यूनिवर्सिटी के एसएससी (स्टूडेंट सर्विस सेंटर)विभाग में काफी सालों से मात्र तीन ही कर्मचारी काम कर रहे हैं।
हालांकि ये कर्मचारी भी रिकॉर्ड ढूंढकर अंकतालिका बनाते हैं, लेकिन हजारों की संख्या में रिकॉर्ड ढूंढना इन तीनों कर्मचारियों के लिए एक मिशन से कम नहीं है। यूनिवर्सिटी सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार एसएससी विभाग में सन 1999 तक 18 कर्मचारियों की नियुक्ति थी। इसके बाद कर्मचारियों का दूसरे विभागों में स्थानांतरण हो गया और कुछ कर्मचारी सेवानिवृत्त हो गए। अब यह संख्या घटकर तीन ही रह गई है।
कम से कम चारकर्मचारियों का कहना है कि बीए संकाय में सबसे ज्यादा विद्यार्थी होते हैं। इसलिए इनका रिकॉर्ड भी ज्यादा होता है। कला संकाय में टेबुलेशन रजिस्टर (टीआर) के करीब 14 वॉल्यूम हैं, जबकि विज्ञान और वाणिज्य संकाय में तीन ही वॉल्यूम हैं। वर्तमान में इन तीनों संकाय के लिए एक-एक कर्मचारी लगे हुए हैं, जबकि इन संकाय के लिए कम से कम चार कर्मचारियों की और आवश्यकता है। साथ ही चार जगहों पर रिकॉर्ड को लाने ले-जाने के लिए एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की भी आवश्यकता है।
टाल देते हैं अघिकारीकर्मचारियों का कहना है कि कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए कई बार रजिस्ट्रार और परीक्षा नियंत्रक को भी लिखा जा चुका है, लेकिन अधिकारी केवल आज-कल, आज-कल कहकर आश्वासन ही दे रहे हैं।
सेक्शन ऑॅफिसर की कुर्सी खाली
यूनिवर्सिटी प्रशासन की सुस्ती का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले डेढ साल से विभाग में सेक्शन ऑफिसर की कुर्सी खाली है। पिछले साल अप्रैल में आरपी शर्मा के सेवानिवृत्त हो जाने के बाद से आज तक इस विभाग में किसी को सेक्शन ऑफिसर नहीं लगाया। प्रशासन ने मात्र यहां पर असिस्टेंट सेक्शन ऑफिसर लगाकर इतिश्री कर ली है।
हमेशा देरी होती है मार्कशीट बनने मेंकर्मचारियों का कहना है कि छात्रों का इतना रिकॉर्ड है कि अकेले ढूंढ पाना बहुत ही मुश्किल है। यही कारण है कि अक्सर डुप्लीकेट अंकतालिका बनने में देरी हो जाती है। कई छात्र तो बिना रोल नंबर लिए ही अंकतालिका करेक्शन के लिए ले आते हैं, ऎसी स्थिति में रिकॉर्ड रूम में उस छात्र की टीआर निकालना भी जंग जीतने के बराबर हो जाता है।
हालांकि ये कर्मचारी भी रिकॉर्ड ढूंढकर अंकतालिका बनाते हैं, लेकिन हजारों की संख्या में रिकॉर्ड ढूंढना इन तीनों कर्मचारियों के लिए एक मिशन से कम नहीं है। यूनिवर्सिटी सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार एसएससी विभाग में सन 1999 तक 18 कर्मचारियों की नियुक्ति थी। इसके बाद कर्मचारियों का दूसरे विभागों में स्थानांतरण हो गया और कुछ कर्मचारी सेवानिवृत्त हो गए। अब यह संख्या घटकर तीन ही रह गई है।
कम से कम चारकर्मचारियों का कहना है कि बीए संकाय में सबसे ज्यादा विद्यार्थी होते हैं। इसलिए इनका रिकॉर्ड भी ज्यादा होता है। कला संकाय में टेबुलेशन रजिस्टर (टीआर) के करीब 14 वॉल्यूम हैं, जबकि विज्ञान और वाणिज्य संकाय में तीन ही वॉल्यूम हैं। वर्तमान में इन तीनों संकाय के लिए एक-एक कर्मचारी लगे हुए हैं, जबकि इन संकाय के लिए कम से कम चार कर्मचारियों की और आवश्यकता है। साथ ही चार जगहों पर रिकॉर्ड को लाने ले-जाने के लिए एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की भी आवश्यकता है।
टाल देते हैं अघिकारीकर्मचारियों का कहना है कि कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए कई बार रजिस्ट्रार और परीक्षा नियंत्रक को भी लिखा जा चुका है, लेकिन अधिकारी केवल आज-कल, आज-कल कहकर आश्वासन ही दे रहे हैं।
सेक्शन ऑॅफिसर की कुर्सी खाली
यूनिवर्सिटी प्रशासन की सुस्ती का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले डेढ साल से विभाग में सेक्शन ऑफिसर की कुर्सी खाली है। पिछले साल अप्रैल में आरपी शर्मा के सेवानिवृत्त हो जाने के बाद से आज तक इस विभाग में किसी को सेक्शन ऑफिसर नहीं लगाया। प्रशासन ने मात्र यहां पर असिस्टेंट सेक्शन ऑफिसर लगाकर इतिश्री कर ली है।
हमेशा देरी होती है मार्कशीट बनने मेंकर्मचारियों का कहना है कि छात्रों का इतना रिकॉर्ड है कि अकेले ढूंढ पाना बहुत ही मुश्किल है। यही कारण है कि अक्सर डुप्लीकेट अंकतालिका बनने में देरी हो जाती है। कई छात्र तो बिना रोल नंबर लिए ही अंकतालिका करेक्शन के लिए ले आते हैं, ऎसी स्थिति में रिकॉर्ड रूम में उस छात्र की टीआर निकालना भी जंग जीतने के बराबर हो जाता है।
बम की 'विदेशी' अफवाह
बजाज नगर इलाके के जेएलएन मार्ग स्थित होटल रेड फॉक्स के रेस्टोरेंट एनम को बम से उडाने की धमकी ने रविवार रात पुलिस की नींद उडा दी। पुलिस ने डॉग स्क्वॉयड और बम निरोधक दस्ते के साथ होटल का कोना-कोना छान मारा। बम जैसी कोई चीज नहीं मिलने पर पुलिस ने राहत की सांस ली। पडताल में सामने आया कि धमकी भरा फोन यूनाइटेड किंगडम (यूके) के मोबाइल नम्बर से आया था। पुलिस फोन करने वाले की तलाश कर रही है।
थानाप्रभारी विक्रम सिंह ने बताया रेस्टोरेंट एनम के मैनेजर राजेश कुमार के मोबाइल पर रात करीब 12.26 बजे फोन आया। फोन करने वाले ने धमकी देते हुए कहा कि रेस्टोरेंट समेत शहर के दस स्थानों पर बम रखे हैं, ब्लॉस्ट होने से रोक सकते हो तो रोक लो। मैनेजर ने तुरंत पुलिस कंट्रोल रूम को सूचना दी। सूचना मिलते ही बजाज नगर समेत करीब दस थानों की पुलिस डॉग स्क्वॉयड व बम निरोधक दस्ते के साथ मौके पर पहुंची। करीब तीन घंटे तलाशी के बाद भी बम जैसी कोई चीज नहीं मिली।
आंखों में कटी रात
पुलिस ने तलाशी के लिए रेस्टोरेंट व होटल से लोगों को बाहर निकालना शुरू किया तो वहां दहशत का माहौल हो गया। लोग डर के मारे गाडियां लेकर मौके से निकल पडे। इसके अलावा होटल में ठहरे कुछ लोगों को भी रात आंखों में काटनी पडी।
क्या कार्रवाई करें
अगर बात राज्य या देश तक होती तो पुलिस आईडी व अन्य आधार पर नम्बरों का पता कर आगे की कार्रवाई कर सकती थी। विदेशी नम्बरों के लिए पुलिस जांच की दिशा तय नहीं कर पा रही है। पुलिस विचार-विमर्श कर रही है, कि इस संबंध में क्या और कैसे कार्रवाई की जाए।
स्थानीय की शरारत!
पुलिस का कहना है कि हालांकि, फोन यू.के. के नंबर से आया था, लेकिन यह शरारत किसी स्थानीय व्यक्ति की हो सकती है। संभवत: फोन करने वाले ने इंटरनेट के उपयोग किया होगा।
डेढ माह में तीन अफवाह
24 मई, 2010
राजमंदिर सिनेमा व गौरव टॉवर में बम की अफवाह
16 अप्रेल, 2010
जौहरी बाजार में कार में बम की अफवाह
थानाप्रभारी विक्रम सिंह ने बताया रेस्टोरेंट एनम के मैनेजर राजेश कुमार के मोबाइल पर रात करीब 12.26 बजे फोन आया। फोन करने वाले ने धमकी देते हुए कहा कि रेस्टोरेंट समेत शहर के दस स्थानों पर बम रखे हैं, ब्लॉस्ट होने से रोक सकते हो तो रोक लो। मैनेजर ने तुरंत पुलिस कंट्रोल रूम को सूचना दी। सूचना मिलते ही बजाज नगर समेत करीब दस थानों की पुलिस डॉग स्क्वॉयड व बम निरोधक दस्ते के साथ मौके पर पहुंची। करीब तीन घंटे तलाशी के बाद भी बम जैसी कोई चीज नहीं मिली।
आंखों में कटी रात
पुलिस ने तलाशी के लिए रेस्टोरेंट व होटल से लोगों को बाहर निकालना शुरू किया तो वहां दहशत का माहौल हो गया। लोग डर के मारे गाडियां लेकर मौके से निकल पडे। इसके अलावा होटल में ठहरे कुछ लोगों को भी रात आंखों में काटनी पडी।
क्या कार्रवाई करें
अगर बात राज्य या देश तक होती तो पुलिस आईडी व अन्य आधार पर नम्बरों का पता कर आगे की कार्रवाई कर सकती थी। विदेशी नम्बरों के लिए पुलिस जांच की दिशा तय नहीं कर पा रही है। पुलिस विचार-विमर्श कर रही है, कि इस संबंध में क्या और कैसे कार्रवाई की जाए।
स्थानीय की शरारत!
पुलिस का कहना है कि हालांकि, फोन यू.के. के नंबर से आया था, लेकिन यह शरारत किसी स्थानीय व्यक्ति की हो सकती है। संभवत: फोन करने वाले ने इंटरनेट के उपयोग किया होगा।
डेढ माह में तीन अफवाह
24 मई, 2010
राजमंदिर सिनेमा व गौरव टॉवर में बम की अफवाह
16 अप्रेल, 2010
जौहरी बाजार में कार में बम की अफवाह
Subscribe to:
Posts (Atom)