बहुत जल्द एक बार फ़िर इस बात की परीक्षा होने जा रही है की जनता वास्तव में विकास के मुद्दों को पसंद करती है या फ़िर अमूर्त भावनात्मक मुद्दों को। हरियाणा और महारास्त्र में अक्टूबर में विधानसभा चुनाव होने जा रहे है। हरियाणा विधानसभा भंग होने के बाद ही राजनितिक सरगर्मी तेज़ हो गए है। बसपा ने बहुत पहले ही भजनलाल की पार्टी के साथ समझोता करके इस राज्य में अपनी उपस्थिथि बढाने की मुहीम छेडदी थी। जाहिर है इस गठजोड़ से किसी को नुक्सान होता तो कांग्रेस को ही होता। पैर कांग्रेस को भरोसा है की हरियाणा के लोग संकीर्ण जातिगत स्वार्थो की जगह पुरे राज्य के विकास के एजेंडेका पक्ष लेने में ज्यादा रूचि दिखायेंगे। अगर फ़िर भी कुछ नुक्सान होता है तो उसकी भरपाई भाजपा और इंडियन नेशनल लोकदल के अलग हो जाने से पुरी हो जायेगी। भाजपा ने ओमप्रकाश चोटाला की पार्टी का साथ छोड़कर पुरे राज्य में अकेले चुनाव लड़ने का फ़ैसला लिया है, पर भाजपा की जो दुर्दसा चल रही है उसे देखते हुए यह कह पाना बड़ा मुस्किल है की पार्टी पुरी ताकत के साथ इन चुनावो का सामना कर पायेगी। कार्यक्रम और दृष्टी दोनों ही स्तरों पर इस समय अगर कोई पार्टी सबसे ख़राब हालत में है तो वो है भारतीय जनता पार्टी। अब भी हिंदुत्व पार्टी का प्रमुख एजेंडा बना हुआ है। हालाँकि कुछ राज्यों में भाजपा के मुख्यमंत्रियों ने पार्टी के इस द्रस्तिकोनसे हटकर विकास पर ध्यान केंद्रित किया है। गुजरात, कर्णाटक, मध्यप्रदेश, और छातिश्गड़के मुख्यमंत्रियों को पिछले चुनावो में कांग्रेस की जीत से सबक मिला है और वो अच्छी तरह समझ गए है की लम्बी paari के लियें जनहित और विकास ही मुख्य लक्ष्य होना चाहिये। येदिउरप्पा और शिवराज चोहान ने जसवंत सिंग की पुस्तक पर पाबन्दी के मामले में अपने हाईकमानसे असहमति जताकर भी यह संकेत दिया है की अपने राज्यों की परिस्थितियों के अनुकूल फैसले लेना उन्हें अता है। हरियाणा में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला करने के पीछे अगर यह सोच है की जनता केबीच उसकी अपने दर्शन और कार्यक्रम की गहरी पैठ है तो आज की परिस्थिति में यह अत्न्सम्मोहन के अलावा कुछ खास नही लगता। महारास्त्र में जरूर स्थितिया thodi alag है। वहाँ हो सकता है की हाल ही में मुंबई पर हुए आतंकी हमले और राज्य के नागरिको को सुरक्षा देने तथा ऐसे हमलो से निबटने में सरकार की भूमिका को मुद्दा बनाने में शिवसेना और भाजपा कामयाब हो जाए। पर इसका प्रभाव केवल मेट्रो तक ही सिमित रहेगा। सूखे ने ग्रामीणों और अर्ध्कस्बाई इलाको की प्राथमिकतायें बदल दी है। वहाँ कोई भावनात्मक हथियार काम नही आने वाला है। कांग्रेस इस बात को बखूबी समझ रही है। इसलिए केन्द्र और राज्य सरकारों ने गाँवो की पीड़ा कम करने की कोशिश तेज़ कर दी है। लोकसभा चुनावो का दबदबा कांग्रेस कायम रखने की कोसिस करेगी। दोनों ही राज्यों में युद्घ की तस्वीर जल्द ही साफ़ होने वाली है।
D.L.A NEWS (DELHI.)
No comments:
Post a Comment