घर वालों से हर कोई लडने को, घर से निकालने को तैयार हो जाता है। बाहर वाले के आसानी से गुलाम हो जाते हैं। सहजता से जीने वाले पानी के प्रवाह की तरह नीचे की ओर बहते हैं। त्याग के लिए संघर्ष करने की तैयारी नहीं होती। कैसी विडम्बना है कि साठ साल की आजादी के बाद भी देश अंग्रेजी मानसिकता की जकड से बाहर नहीं निकल पा रहा। इस मानसिकता को बाहर निकालने की हिम्मत किसी में नहीं है। महाराष्ट्र में तो भारतीय भाषाओं पर आक्रमण किया जा रहा है। अगर किसी में दम है तो पहले गुलामी की मानसिकता को बाहर निकाले, बाद में भारतीय भाषाओं और विभिन्न प्रादेशिक नागरिकों को कुछ कहने लायक बनें।
राष्ट्रमण्डल (कॉमनवैल्थ) क्या है। उन देशों का संगठन, जो ब्रिटेन के गुलाम रह चुके हैं। इसके सदस्यों को आज भी ब्रिटिश महारानी के समक्ष नतमस्तक होना पडता है। कहने को इसका गठन सदस्य देशों में परस्पर तालमेल और सुशासन सुनिश्चित करने के लिए किया गया है, पर किसके नेतृत्व में। अगले वर्ष राष्ट्रमण्डलीय खेलों का आयोजन भारत में किया जाएगा। क्या है इस आयोजन के पीछे की अवधारणा। इनमें वे ही देश भाग ले सकते हैं, जहां अंग्रेजों का शासन रह चुका है। इसका अर्थ क्या हैक् क्या हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि में एक भी ऎसा नहीं हुआ, जो इस तथ्य को समझ सकता कि क्रिकेट भी उन्हीं देशों में खेला जाता है, जहां अंग्रेजी हुकूमत रह चुकी है। अन्य देशों की टीमें इसमें नहीं खेलतीं।
सीपीयू (कॉमनवैल्थ प्रेस यूनियन) में उन्हीं देशों के मीडिया ग्रुप भाग लेते हैं, जहां अंग्रेजी विरासत मौजूद है। क्या यह परोक्ष नियंत्रण के सूचक बिन्दु नहीं हैक् मैंने भी पांच-छ: सीपीयू के सम्मेलनों में भाग लेकर देखा है। मेरे प्रश्नों का वहां भी कोई उत्तर देने वाला नहीं था। वहां आज भी सम्मेलन शुरू होने से पूर्व ब्रिटेन की महारानी के नाम टोस्ट करने के लिए सबको खडा होना पडता है। अन्य देशों के अध्यक्षों/ प्रधानों का वहां कोई वजूद नहीं है।
आश्चर्य की बात यही है कि इन सम्मेलनों में देश के अंग्रेजी दां गर्व के साथ भाग लेते हैं। कोई भी यह प्रश्न नहीं उठाता कि इनमें अन्य देशों की भागीदारी क्यों नहीं स्वीकृत होती। इसके अभाव में सारे प्रतिभागियों के मन में गुलामी की छाया बरकरार रहती है, क्योंकि अघिकांश बडे पदाघिकारी आज भी अंग्रेजी मूल के ही होते हैं। ये सारे आयोजन हमारी गुलामी की विरासत के ही दस्तावेज हैं, गुलामी के नासूर हैं, जिसे हम अगली पीढी को भी सौंपकर जाना चाहते हैं। क्या यह आयोजन आजादी की लडाई के शहीदों का अपमान नहीं है। हमें या तो इन खेलों में अन्य सभी देशों को भाग लेने का खुला निमंत्रण देना चाहिए या फिर हमको इन राष्ट्रमण्डलीय आयोजनों का बहिष्कार करके स्वयं को पूर्ण रूप से स्वतंत्र घोषित कर देना चाहिए। हर देशवासी का सम्मान इस निर्णय के साथ जुडा है। नई पीढी अवश्य इनके मुंह पर थूकेगी।
साभार: गुलाब जी कोठारी , राजस्थान पत्रिका
नितिन शर्मा (news with us)
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